________________ 234 नैषधमहाकाव्यम् / कोई मित्र नहीं दृष्टिगोचर होने से राहुशिरका उसीके धड़के साथ जोड़ने की संभावना को दमयन्तीने प्रकट किया है, फिर इस पद्य में यदि कोई वैसा करनेवाला मिल भी गया तो भी राहुके शिरको कटे बहुत समय व्यतीत हो जाने के कारण उस जोड़को दृढ न समझकर इस श्लोकमें रक्तयुक्त नलच्छिन्नमस्तक शके धड़के साथ राहुशिरको मिलकर दृढ होने की कल्पना दमयन्तीद्वारा की गई है / ऐसा होने से चन्द्रमा राहु के जठर में जाकर गल-पच जायेगा और विरहि-जनों को सर्वदाके लिये उससे छुटकारा मिल जायेगा ] // 68 // सखि ! जरां परिपृच्छ तमश्शिरस्सममसौ दधतापि कबन्धताम् / मगधराजवपुर्दलयुग्मवत् किमिति न प्रतिसीव्यति केतुना ? // 6 // सखीति / अथवा, हे सखि ! जरा जराख्यां निशाचरी, परिपृच्छ / असी जरा कबधताम, अशिरस्कतां दधतापि केतुना समं केतुग्रहेण सह, तमसो राहोः शिर: मगधराजस्य जरासन्धस्य वपुर्दलयोः शरीरार्धमागयोः युष्मवत् युगलमिव, किमि ति न प्रतिसीम्यति न सन्धत्ते ? / शिरोमानं राहुः शरीरमानं केतुः तयोः सम्धाने पूर्ववत्तजठराग्निना चन्द्रो जीयेंदिति भावः / जराकृताङ्गसन्धानो जरासन्ध इति भारती कथानुसन्धेया // 69 // ___ हे सखि ! तुम जरा ( नामकी राक्षसी ) से पूछो कि राहु के शिरको कबन्धरूप केतुके साथ, मगधनरेश ( जरासन्ध ) के शरीर के दो खण्डों के समान क्यों नहीं सी ( कर जोड़) देती हो ? / [ जिस प्रकार दो टुकड़ों के रूप में जन्मे हुए जरासन्धका शरीर सीकर तुमने जोड़ दिया, उसी प्रकार केतुरूप धड़ तथा राहुरूप शिर को जोड़ देना उचित हैं, विष्णुके द्वारा सुदर्शन चक्रसे काटने के बाद एक ही दैत्यका शिर राहु तथा धड़ केतु नामसे प्रसिद्ध हुश्रा, अतः एक ही व्यक्ति के धड़ तथा शिरको जोड़ ना तुम्हें अवश्यमेव उचित है। इससे मिस प्रकार विरहिजनों को लाभ होगा, वह पहले के दो इलोकों में कह दिया गया है ] 69 // बद विधुन्तुदमालि ! मदीरितैस्त्यजसि किं द्विजराजधिया रिपुम् / किमु दिवं पुनरेति यदीदृशः पतित एष निषेव्य हि वारुणीम् / / 70 // वदेति / हे भालि सखि ! मदीरितैः मद्वाक्यैः, विधुन्तुदं राहुं वद, रिपुं द्विजरा जश्छन्द्रो ब्राह्मणश्रेष्ठश्च, तदिया त्यजसि किम् ? / तन्नास्तीत्याह-ययस्मादेष चन्द्रो वाहणी प्रतीची सुराज / 'वाहणी गन्धर्वायां प्रतीचीसुरयोरपि' इति विश्वः / निषे. ज्य गरवा पीत्वा च / पतितः च्युतः पातकी च / ईरशः पतितोऽपि पुनर्दिधमन्तरिक्षं स्वर्गच एति यदि किमु / इयोरपि पतितयोरधोगतिरेव नोर्ध्वगतिरित्यर्थः / अतः पतितस्य कुतः श्रेष्ठयं कुतस्तरां तडधे दोषश्चेति भावः // 70 // हे मालि ! तुम मेरे कहनेसे चन्द्रमाको पीड़ित करनेवाले अर्थात राहुसे पूछो कि-'तुम