________________ चतुर्थः सर्गः 223 होता है तो वह आपकारीको हृदयसे लगाये रहता है तथा दुष्टों-पाप करनेवालोंको बाहर कर देता है, किन्तु दुओंकी प्रकृति इसके विपरीत होती है, वे पापियोंको ही हृदयसे लगाते और परोपकारी सज्जनों को बाहर कर देते हैं। अथवा-दुघलोग अपने पापको तो हृदयमें धारणकर छिपा लेते हैं तथा उपकार मावको बाहर प्रगट करते हैं, मतः इस दुष्ट चन्द्रमाने भी ऐसा ही किया है ] // 47 // अयि विधुं परिपृच्छ गुरोः कुतः स्फुटमशिक्ष्यत दाहवदान्यता | ग्लपितशम्भुगलाद्गरलात्त्वया किमुदधौ जड ! वा वडवानलात् / / 4 / / अयोति / मयि सखि ! विधं परिपृच्छः। हे जडमूढ ! स्वया वाहवदान्यता दाह. दातृत्वं दाहकत्वमित्यर्थः / किं म्लपितशम्भुगलाच्छोषितशम्भुफण्ठात् गरलात काल. फूटात् , उदधी बडवानलाद्वा कुतः कस्माद् गुरोः स्फुटमशियत शिरिता, अभ्यस्तस्यर्थः॥४८॥ हे सखि ! तुम चन्द्रमासे पूछो कि-'तुमने दाहको अधिक देनेकी यह दानवीरता किस गुरुसे सीखी है ? हे जड़ ! शङ्करनीके गलाको बलानेवाले विष (कालकूट ) से अथवा समुद्र में सदा रहनेवाले बड़वानकसे ? [ जो निसके पास रहता है, वह उसीसे कोई बात सीखता है, चन्द्रमाको मो शङ्करजीके मस्तकमें रहने तथा समुद्रसे उत्पन्न ( उदय ) होने के कारण क्रमशः शिवकण्ठस्थ कालकूट या उदविस्थ बडवानलसे दाहकत्व शक्तिको सीखना सम्भव है, क्योंकि वे दोनों ही बत्यन्त दाहक है ] // 48 // अयमयोगिवधूवधपातकैमिमवाप्य दिषः खलु पात्यते / शितिनिशादृषदि स्फुटदुत्पतत्कणगणाधिकताराकताम्बरः // 46 // ___ अयमिति / अयं विधुः, अयोगिवधूवधपातकः वियोगिनीहिंसापापैः, करणः, भ्रमि भ्रमणम्, अवाप्य प्रापय्य भाप्नोतेण्यंन्ताव स्वो क्यादेशः। 'विमाषाऽऽप:" इति विकल्पादयादेशामावः / शितिनिशा कृष्णपराबिस्तस्यामेव हि शिलायां स्फुटन्तः पातवेगाद्विलन्तः तत उत्पतन्तन ये कंगाः खण्डाः, तेषां गणेरधिक तारकिताम्बरं भूग्ना तारकवस्कृताकाशःसन् / अत एव कृष्णपक्षे तारकबाहुल्यमिति भावः। तारकवच्छन्दात् 'तस्करोति' इति ण्यन्तात् कर्मणि कः। विन्मतोर्मक मतुपो लुक दिवोऽन्तरिवाधिपात्यते खलु / उत्कटपापफारिणः पुरे परिभ्राम्य शिलायां निपास्य हम्यन्त इति भावः॥४९॥ यह (चन्द्रमा) विरहिणी स्त्रियोंके वधजन्य पापसे घुमाया नाकर काली रात्रिरूप शिला ( पस्थर ) पर स्वर्ग अर्थात् अत्यन्त ऊँचे स्थानसे गिराया जाता है, और फूटकर (चूर्ण 2 होकर ) ऊपर उछलते हुए टुकड़ों ( स्वर्गपतित चन्द्रमाके खों) के समूरसे भाकाश अधिक तारामोंसे युक्त हो जाता है। [शुक्लपक्षमें चन्द्रदर्शनसे विरहिणियोंको अधिक कार होता है तथा चन्द्रप्रकाशके कारण भाकाशमें तारागण भी बहुत कम दिखलाई पड़ते है। इसके विपरीत कृष्णपक्षमें चन्द्रदर्शनके न होनेसे विरहिणी सियोंको अधिक कष्ट नहीं