________________ 216 ..चतुर्थः सर्गः कर निःश्वासके न्याबसे योग्य ( वारुणास्त्रको शान्त करनेमें समर्थ) बायन्यास्त्रको रस ( कामदेव.) के प्रति छोड़ा। [अन्य भी कोई योद्धा शत्रुके गरणास्त्र ठानेपर उसको शान्त करनेमें समर्थ बायम्यास्त्रको शत्रुके ऊपर छोड़ता है। वर्षा ऋतुमें उठे हुए काले काले बादलों को देखकर विरहिणी दमयन्तीका निःश्वास अत्यन्त बड़ गया] // 39 // रतिपतिप्रहितानिलहेतितां प्रतियती सुदती मलयानिले / - तदुरुपतापभयात्तमृणालिकामयमियं भुजगास्त्रमिवादित // 40 // रतिपतीति / मुदतीयं भैमीमलयानिले विषये रतिपतिप्रहितानिलहेतितां काम प्रयुक्तवायम्यास्ताम् / 'हेतिःशस्त्र प्रहरणं द्यायुधशास्त्रमेव च' इति हलायुषः। प्रति. यती मानती। इणः शतरि डीप / तेनास्त्रेण य उरुस्तापः ततो भयात, भात्ता भी. कृता या मृणालिका तन्मयं विसरूपं, भुजगासम् अदितेब आत्तवती किमित्युप्रेता। भुजगानां वाताहाररावादिति भावः / 'स्थाधोरिच' इतीकारः। 'हस्वादमात्' इति सलोपः // 40 // मुन्दर दातोंवाली दमयन्तीने मण्यवायुको कामदेवके द्वारा (भपने प्रति ) छोड़ा गया वायव्यास्त्र समझकर उससे उत्पन्न होनेवाले अत्यधिक सन्तापके भयसे कमलनालरूप सख को धारण कर लिया। [अन्य भी कोई योद्धा अपने प्रति छोड़े गये वायव्यावसे उत्पन्न करको दूर करने के लिए सपास्त्र (नागाल) धारण करता है। मलयानिळके बहनेपर विरहिणी दमयन्तीको पीडाशान्ति के लिये (सफेद तथा कुरिलाकार होनेके कारण सपैके समान ) मृणाकानालको हृदयादिपर रख लिया ] // 40 // न्यधित तधृदि शल्यमिव द्वयं विरहितां च तथापि च जीवितम् / किमथ तत्र निहत्य निखातवान् रतिपतिः स्तनबिल्वयुगेन तत् // 41 // न्यषितेति / रतिपतिस्तददि भैमीहृदये, विरहितां विरहित्वं, , तथापि बिर. हिस्वेऽपि, जीवितंति दूर्व, शल्यं शङ्कमिव, न्यधित निखातवानित्यर्थः। जीवतो विरहः विरहिणो जीवनं च हे अपि शक्यप्राये इत्यर्थः / दधातेल डि त / 'स्थाग्यो। रिच' इतीकारः / स्वादङ्गात्' इति सलोपः / अथ निखननानन्तरं, तछल्पयं स्तनावेव विश्वे परिणतविक्फले, तयोर्यगेन तच हृदि निहत्य माहत्य, निसातवान् किम / यथा लोके निखातं शराबर्याय पाषाणेन घ्नन्ति तरिति भावः। पूर्वार्ध शल्यनिखननोस्प्रेक्षा / उत्तरार्धे निहत्य निहननोस्प्रेक्षा। निखातानित्यवादः॥४॥ कामदेखने उस दमयन्तीके हृदयमें दो शस्य अर्थात् कील या खूटोंके समान विरह तथा जीवन (अथवा-विरही होकर बोना एवं जीते हुए विरही होना) स्थिर कर दिया (शश्यपक्षमें-गाड़ दिया) और एन दोनों बल्यों को स्तनरूपी दो बिल्वफडों (बेडके फलों) से वहां पर (दृढ़ताके व्येि ) ठोंककर स्थिर कर दिया क्या ? [विरहिणियों के छिये बौना मौर जीते हुए विरहिणी होना-ये दोनों कार्य महाकष्टकर होते है, उसमें युवावस्थामैं तो ये अत्यन्त ही असह्य हो जाते हैं। कामदेवके द्वारा दमयन्तीके हृदयमें जीवन तथा विरहरूप