________________ 158 नैषधमहाकाव्यम् / हैं, जैसे निन्ध मत्स्य (मछली ) भी श्रीवत्स ( विष्णुके चिह्न-विशेष ) से युक्त होनेके कारण वन्दनीय होता हैं / कुमारी होनेसे मुझमें अज्ञानकी मात्रा अधिक है, अतः अज्ञानीके अपराधको क्षमा करना भी बड़ोंको उचित ही है ] // 57 // मत्प्रीतिमाधिससि कां त्वदीक्षामुदं मदक्षणोपि याऽतिशेताम् / निजामृतलॊचनसेचनाद्वा पृक्किमिन्दुस्सृजति प्रजानाम ? ||5|| अथ यदुक्तं त्वयेप्सितं किं विदधे ? अभिधेहीति, तत्रोत्तरमाह-मन्त्रीतिमिति / कां मत्प्रीति किंवा मदीप्सितमित्यर्थः / आधित्सति आधातुं कर्तुमिच्छसि ? दधातेः सन्नन्ताहट / या प्रीतिर्मदक्षणोः त्वदीक्षामुदं त्वदीक्षणप्रीतिमतिशेतान्त्वदर्शनोत्सवादास्क ममेप्सितमित्यर्थः / तथाहि इन्दुः प्रजानां जनानां निजामृतैर्लोचनसेच. नात् पृथक अन्यत 'पृथग्विने' त्यादिना पञ्चमी / किंवा सृजति करोति न किञ्चित् करोतीत्यर्थः। दृष्टान्तालङ्कारः॥ 58 // ( अब दमयन्ती अपनी अभीष्ट-सिद्धिके विषयमें कहती है-) जो तुम्हारे दर्शनसे उत्पन्न मेरे नेत्रों के हर्षसे भी अधिक हो, वह कौन मेरा अभिलषित करना चाहते हो? ( तुम्हें देखनेसे जो मुझे हर्ष हुआ है, उससे अधिक हर्षप्रद मेरा कोई अभीष्ट तुम नहीं साध सकते ), क्योंकि चन्द्रमा अपने अमृत-प्रवाहोंप्से प्रजाओं ( दर्शकों ) के नेत्रको तृप्त करनेके अतिरिक्त क्या करता है ? अर्थात् कुछ नहीं। [ वैसे तुम भी मुझे दर्शनानन्द देनेके अतिरिक्त मेरा कोई अभीष्ट नहीं साध सकते हो, ‘अतः तुमसे अभीष्ट बतलाना व्यर्थ है ] // 58 // मनस्तु यं नोन्मति जातु यातु मनोरथः कण्ठपथं कथं सः / का नाम बाला द्विजराज पाणिप्रहाभिलाषं कथयेभिज्ञा // 5 // अत्र सर्वथा मनोरथः कथनीयः इत्यभिप्रेत्य तन्न शक्यमित्याह-मनस्त्विति / मनो मच्चित्तं कत्त यं मनोरथं जातु कदापि नोज्झति न जहाति, स मनोरथः कण्ठपथं वाग्विषयम् उपकण्ठदेशं च कथं यातु, सम्भावनायां लोट् / सम्भावनापि नास्ती. त्यर्थः / केनापि प्रतिबद्धस्य मनोरथस्य कथमन्तिकेऽपि सञ्चार इति भावः / कुतः? अभिज्ञा विवेकिनी का नाम बाला का वा स्त्री द्विजराजस्य इन्दोः पाणिना ग्रहे ग्रहणे अभिलाषं कथयेत् / तथा द्विज ! पक्षिन् ! राजपाणिग्रहाभिलाषं नलपाणिग्रहणेच्छा. मिति च गम्यते तया च दुर्लभजनप्रार्थना द्विजराजपाणिग्रहणकल्पा परिहासास्पदीभूतां कथं लजावत्या वक्तुं शक्या इत्यर्थः। पूर्व एवालङ्कारः // 59 // जिसे मन कभी नहीं छोड़ता है, वह मनोरथ ( अन्तःकरण, पक्षा०-अभिलाष) कण्ठमार्गमें किस प्रकार आवे ? ( क्योंकि) कौन निर्लज्ज बालिका चन्द्रमाको हाथसे पकड़नेकी इच्छा ( पक्षा०-हे पक्षी ! राजा ( नल ) के साथ विवाह करने की इच्छा) को कहती है ? [अन्तःकरण नीचे हैं तथा कण्ठ ऊपर , अतः नीचेसे ऊपरकी ओर रथका