________________ तृतीयः सर्गः। - स्वाकूतकथनसकोचात् लजिता, 'नुदविदेत्यादिना विकल्पानिष्ठानत्वम् / हृष्टा उपायलाभान्मुदिता च सती बभाण / किमिति ? मदीयं चेतो लङ्का नायते, किन्तु मलं राजानं कामयत इति श्लेषभङ्गया बभाणेत्यर्थः / अन्यत्र कुत्रापि वस्तुनि साभिलाषं न // 67 // ___उस पक्षी ( हंस ) के ऐसा ( 362-66 ) कहने पर प्रसन्न एवं लज्जित दमयन्ती बोली कि-मेरा मन लङ्काको नहीं जाता अर्थात् मैं लङ्कापुरीको नहीं चाहती ( पक्षा०मेरा मन नलको चाहता है ), दूसरे किसी वस्तु को ( या दूसरे किसी ( राजाको) नहीं चाहता, ( अथ च-नलके नहीं मिलने पर मेरा चित्त अनल ( अग्नि ) को चाहता है कि मैं उसमें जलकर भस्म हो जाऊं, किसी दूसरे को नहीं चाहता ) // 67 // विचिन्त्य बालाजनशीलशैलं लज्जानदीमजदनङ्गनागम् / आचष्ट विस्पष्टमभाषमाणामेनां स चक्राङ्गपतङ्गशकः // 68 // विचिन्त्येति / विस्पष्टमभाषमाणां श्लेषोक्तिवशात्संदिग्धमेव भाषमाणामित्यर्थः। एनां दमयन्तीं सः चक्राङ्गपतङ्गशक्रः हंसपक्षिश्रेष्ठः वालाजनस्य मुग्धाङ्गनाजनस्य शीलं स्वभावमेव शैलं लजायामेव नद्यां मजदनङ्गनागो यस्य तं विचिन्त्य विचार्य आचष्ट, तस्य लजाविजितमन्मथत्वं ज्ञात्वा लजाविसर्जनार्थ वाक्यमुवाचेत्यर्थः // 68 // __ वह राजहंस बालाओं के पर्वताकार ( बहुत बड़े ) शीलको तथा लज्जारूपिणी नदीमें गोता लगाते हुए कामदेवरूपी हाथो वाला समझकर स्पष्ट नहीं कहती हुई इस दमयन्तीसे बोला- / [ लज्जावश कामपीडित होती हुई भी वाला यह दमयन्ती पर्वताकार शीलका उल्लङ्घनकर अपने मनोरथको स्पष्ट नहीं कहती है, यह सोचकर राजहंस बोला- // 6 // नृपेण पाणिग्रहणे स्पृहेति नलं मनः कामयते ममेति / आश्लेषि न श्लेषक वेर्भवत्याः इलोकद्रयार्थस्सुधिया मया किम् ? / / 6 / / नृपेणेति / श्लेषकवेः श्लेषभङ्गया कवयित्र्याः श्लिष्टशब्दप्रयोक्न्या इत्यर्थः, कवृ. वर्णन इति धातोरोणादिक इकारप्रत्ययः / भवत्यास्तव सम्वन्धि नृपेण का पाणिग्रहणं पाणिपीडनम् , 'उभयप्राप्ती कर्म गीति विहितायाः षष्टयाः 'कर्मणि चेति समासनिषेधेऽपि शेपे पष्ठोसमासः / तत्र स्पृहेति मम मनो नलं कामयते द्विजराजपाणिग्रहति चेतो नलं कामयत इति श्लोकद्वयार्थः सुधिया मया विदुषा नाश्लेषि नाग्राहि किं ? गृहीत एवेत्यर्थः // 69 // 'राजा ( नल ) के साथ विवाह करनेकी इच्छा है, मेरा मन नलको चाहता है। ऐसे इलषपण्डिता तुम्हारे पूर्वोक्त दो श्लोकों ( 3159 तथा 67 ) के अर्थको विद्वान् मैने नहीं समझा क्या ? अर्थात् 'यद्यपि तुमने स्पष्ट नहीं कहकर इलेषद्वारा अपगा मनोरथ बतलाया है. तथापि तुम नलको चाहती हो' ऐसा तुम्हारे अभिप्रायको मैंने समज ही लिगा है // 69 //