________________ 161 तृतीयः सर्गः जन्यास, 'द्वौ वंशौ कुलमस्कराविस्यमरः / अधिगुणामधिकलावण्यादिगुणामधिः ज्याच निवासदनुवर्तमानं सिन्दूरस्याङ्कुरावस्थायां नालान्तराले चिप्तस्य सौन्दर्य शोभा यस्यां तया कषरेखया कालान्तरे सिन्दूरसंक्रान्तिपरीक्षार्थ कृतघर्षणरेखयेवे. स्युत्प्रेक्षा / पृष्ठे प्रीवापश्चादागे कियत् किशिपथा तथा लम्बया सस्तया ग्रीवालकृ. तिः ग्रीवालङ्कारभूता या पट्टसूत्रलता तया प्राजिष्णुं ताच्छील्ये 'भुवश्चेति चकाराविष्णुच / भ्राजमाना स्वामेव धनुर्वलीं चापलतामासाच माधति हृष्यति / श्लेषोरप्रे. चासकीणों रूपकालङ्कारः // 126 // कामदेव पुष्पों के बाणोंसे दुर्जय ( दुःखसे जीते जाने योग्य ) इस राजा (नल ) को जीतने के लिए दोषरहित वंशमें उत्पन्न ( पक्षा-छिद्ररहित बांससे बनी हुई ) तथा अधिक गुणवाली ( पक्षा०-डोरी चढ़ी हुई ) तुमको धनुलता पाकर हर्षित हो रहा है, जो धनु. लंता ( तुम्हारी ) पीठएर कुछ लटकती हुई कण्ठभूषगके लाल पट्टसूत्रलतासे सिन्दूरको शोमावाली अर्थात् बासकी परीक्षाके लिए सिन्दूर रगड़नेसे उत्पन्न लाल रेखासे युक्तके समान शोमती है / [ सिन्दूर लगाकर बांसकी परीक्षा करने के लिए धनुषको पीछे रगड़ते है, यदि लाल सिन्दूर की रेखा धनुष के पीछे स्थित हो तो यह बांस धनुष के लिए उत्तम होता है / प्रकृतमें तुमने कण्ठभूषण पहना है, जिसकी लाल कपड़ेकी पट्टी कण्ठके पीछेसे होकर पीठपर थोड़ा लटक रही हैं, यही पट्टी धनुषके पीछेवाली पूर्वोक्त सिन्दूर रेखा है, जिससे परीक्षित बांसवाला धनुष शोमता है (और पक्षा०-जिसके थोड़ा पीठपर लटकने वाली कण्ठभूषणकी काल पट्टीसे तुम शोमती हो ) ऐसी श्रेष्ठ वंशोत्पन्न गुणवती तुमको ही छिद्ररहित बांससे बनी तथा डोरी चढो हुए धनुलतासी पाकर कामदेव प्रसन्न हो रहा है कि पुष्प-धनुषसे दुर्जय नलको अब मैं सरलतासे जीत लूगा] // 126 / / त्वद्गुच्छावलिमौक्तिकानि गुटिकास्तं राजहंसं विभो बेध्यं विद्धि मनोभुवः स्वमपि तां मजुं धनुर्मचरीम् / यन्नित्याङ्कनिवासलालिततमज्याभुज्यमानं लस नाभीमध्यबिला विलासमखिलं रोमालिरालम्बते / / 127 / / स्वदिति / विभोर्मनोभुवः कामस्य पक्षिवेधुरिति शेषः / तव गुच्छावलेमताहा. रविशेषस्य मुक्ता एव मौकिकानि, 'विनयादित्वात् स्वार्थे ठगिति वामनः / गुटिकाः गुलिकाः विद्धि जानीहि / तं राजहंस राजश्रेष्ठं तमेव राजहंसं कलहंसं श्लिष्टरूपकम् / 'राजहंसो नृपश्रेष्ठे कादम्बकलहंसयो रिति विश्वः / वेधित प्रहर्त्तमहं वेध्यं लपयं, विध-विधाने 'अहलोण्यत्' अनेकार्था धातवः' एवमाह-'वेषितपिछद्रितावि'स्यत्र स्वा. मी। अन्य स्वाहुः-स्वप्नेऽपि विधानार्थ एव प्रयोगाच विध-वेधन इत्येवाकारस्था पाठः, पाठान्तरं तु प्रामादिकमन्धपरम्परायातमिति बिद्धि / स्वमात्मानमपि 'स्वो 1. '-भज्यमानम्' इति पाठान्तरम् / 13 नै०