________________ 204 नैषधमहाकाव्यम्। उछल (बाहर निकल ) गया, उस अपराधको, रोकनेवाले सटे हुए पड़े-बड़े स्तनों के दबावने पारण किया भात सटे हुए बड़े बड़े स्तनों के बोझके कारण ही विरह-पीडामें भी दमयन्तीका हृदय फटकर टुकड़ा-टुकड़ा नहीं हो गया। [ अन्य भी कोई वस्त्र आदि इलको वस्तु वजनदार बड़े पत्थरों के दवावसे ऊपरको नहीं उड़ने पाती / अथवा-'उस अपराधको रोकनेवाले सटे हुए बड़े बड़े दोनों स्तनौने पी लिया। यह भी अर्थान्तर हो सकता है]॥१०॥ निविशते यदि शुकशिखा पदे सृजति सा कियतीमिव न व्यधाम / मृदुतनोतिनोतु कथं न तामवनिभृत्त निविश्य हृदि स्थितः // 11 // निविशत इति / शूकशिखा कण्टकाग्रं, पदे चरणे निविशते प्रविशति यदि 'नेर्विश' इत्यात्मनेपदम् / सा प्रविष्टा शूकशिखा / कियतीमिव व्यधां पीडाम, इव. शब्दो वाक्यालकारे / कीदृशी व्यधामित्यर्थः / न सृजति नोत्पादयति, महतीमेव मजतीत्यर्थः / अवनिभृद्राजा नलः, पर्वतश्च / स तु, हृदि निविश्य स्थितः सन् , मृदुतनोः कोमलांग्या, तां तथाविधां, व्यधां कथं न वितनोतु तनोत्ववेत्यर्थः / सम्भावनायां लोट / अत्र पदे सूचमकण्टकप्रवेशे दुस्सहा व्यथा / किमुत मृदंग्या हृदि महाप्रवेशेनेति कैमुस्यन्यायेनार्थापत्तेरापत्तिरलङ्कारः // 11 // ___ यदि पैर में शूक ( यव या गेहूँ आदि धान्योंके बालिमें होनेवाला महीन ढूंड ) का नोक मी घुस जाता है, तो वह कितनी पीडा नहीं पहुँचाता अर्थात् अत्यधिक पीडा पहुं. चाता है / तब सुकुमार शरीरवाली दमयन्तीके हृदयमें घुसकर (पूर्णतया प्रवेशकर) स्थित महीभूत ( पर्वत, पक्षान्तरमें-राजा=नल ) उस व्यथाको क्यों नहीं बढ़ावें ? [ पैर-जैसे कठिनतम अङ्गमें सूक्ष्मतम शूकका अग्रभाग भी जब व्यथा करता है, तब हृदय -जैसे कोमलतम मर्मस्थल में पूर्णरूपेण प्रविष्ट हुए पहाड़ ( पक्षान्तरमें-नल )-जैसा विशालतम कठिन पदार्थसे सुकुमार शरीरवालीकी व्यथाका अधिक बढ़ना ठीक ही है // दमयन्तीके हृदय में नल थे, अतः उनके विरहसे वह अधिक व्यथित हो रही थी ] // 11 // मनसि सन्तमिव प्रियमीक्षितुं नयनयोः स्पृहयान्तरुपेतयोः / ग्रहणशक्तिरभूदिदमीययोरपि न सम्मुखवास्तुनि वस्तुनि / / 12 / / मनसीति / मनसि सन्तं हृदि वर्तमानं प्रियमीक्षितुं स्पृहया, अन्तरुपेतयोरन्तः प्रविष्टयोरिव, इदमीययोरस्याः सम्बन्धिनोः / इदंशब्दात्यदादेः 'वृद्धाच्छः'। नयः नयोः सग्मुखं पुरोदेशः वास्तु स्थानं यस्य तस्मिन्नपि पुरोवर्तिन्यपि वस्तुनि, ग्रहण शक्तिः साक्षात्करणसामर्थ नाभूत् / नलव्यासम्मान किञ्चिदन्यदद्राक्षीदित्यर्थः। तद्ग्यासङ्गनिमित्तस्य बाझादर्शनस्य चक्षुषोरन्तःप्रवेशननिमित्तत्वमुस्प्रेक्षते / चिन्तैव सधारी भावः॥१२॥ मनमें स्थित प्रिय नलको देखनेके लिए मानों भीतरको घुसी (चिन्तासे भीतरकी ओर 1. 'ग्यथाम्' इति पाठान्तरम् /