________________ 212 नैषधमहाकाव्यम् / सन्ताप-शांतिके लिए उसकी सखियों द्वारा लाये गये) कमल-नालका रूप धारणकर घरको खिड़कियों के बिलोंसे प्रवेश किया क्या ? [ अन्य मी कोई प्रबल शत्रु अपने प्रतिपक्षीको भारने के लिये अपने वास्तविक वेषको धारणकर द्वारमार्गसे आने के समय अपनी रुकावटकी आशंकाकर अपना वेष बदलकर खिड़की आदिके मार्गसे घरमें घुसकर भयसे घरसे बाहर नहीं निकलनेवाले प्रतिपक्षीपर प्रहार करता है / खिड़कियों के बिलोंसे घरमें प्रवेश करती हुई चाँदनी हृद्गत कमल-नालके समान मालूम पड़ती थी, और उसे देखकर विरहजन्य क्षीणतासे घरसे बाहर नहीं निकल सकने वाली दमयन्तीको पीडा हाती थी ] // 24 // हृदि विदर्भभुवोऽश्रुभृति स्फुटं विनमदास्यतया प्रतिबिम्बितम् / मुखहगोष्ठमरोपि मनोभुवा तदुपमाकुसुमान्यखिलाः शराः / / 25 // हृमीति / विदर्भभुवो वैदाः , विनमदास्यतया नम्राननत्वेन (हेतुना) अभ्रणि बिभर्तीत्यश्रभृत् , विप / तस्मिन्नसिक्त इत्यर्थः / हृदि वसि, वैमख्यात् स्फट यथा तथा प्रतिबिम्बितं, मुखं च दशौ च ओष्ठश्च मुखहगोष्ठम् / प्राण्यङ्गत्वादेकव. द्भावः / मनोभुवा कामेन, नस्य मुखादेः उपमाकुसुमानि पद्यम् उत्पले बन्धूक च पञ्चधा स्थितान्युपमानपुष्पाणि तान्येव अखिलाः पश्चापि शराः सदरोपि रोपितम्। तस्यास्तथाविधे वांसि प्रतिफलितं मुखाधवयवपञ्चकं पञ्चशरनिखातम्, तदुपमानः कुसुमशरपञ्चक मिवालच्यतेत्युत्प्रेकार्थः // 25 // ___ अश्रुयुक्त दमयन्तीके हृदयमें (छातीपर ) उस दमयन्तीके भुखके नम्र होनेसे प्रति. बिम्मित उसका मुख, दोनों नेत्र तथा दोनों ओष्ठ (1+2+2=5) रूप उनके उपमानमूत सब ( पांचों) पुष्प-बाणोंको मानो कामदेवने सचमुच ही गड़ा दिया था। [ कामदेवके पुष्पमय पाँच बाण हैं, दमयन्ती के मांसूसे भोगे हुए हृदय पर प्रतिविम्बित उसका कमलतुल्य मुख, नील-कमल-तुल्य दोनों नेत्र, तथा दुपहरियाके फूलके समान दोनों मोठ-इस प्रकार मुख, नेत्र तथा पोष्ठ के उपमानभूत पांचों पुष्पमयबाण कामदेव द्वारा विरहिणी दमयन्तीके अश्रुबुक्त हृदयमें गड़ाये गये मालूम पड़ते थे। दमयन्ती विरहमें अत्यधिक रोती तथा मुखका नीचे किये रहती थी ] // 25 // विरहपाण्डुकपोलतले विधुळधित भीमभुवः प्रतिबिम्बितः / अनुपलक्ष्यसितांशुतया मुखं निजसुखं सुखममगार्षणात् // 26 / / विरहेति / विधुः, भीमभुषः भैम्याः, विरहेण पाण्डुनि कपोलतले गण्डस्थले, प्रतिबिम्बितः सन् , अनुपलच्यसितांशुतया सावात् दुलंच्यशुभ्रकिरणतया, सुखमनायासेन, अङ्कमृगार्पणादसितकलङ्कमगसमर्पणात् , मुखं भैमीमुखं निजसखं स्वसदृशं, व्यधित विहित वानू / दोषिणो हि स्वदोषं निषेऽपि स्वसंसगिणि सक्रमय्य समीकुर्वन्तीति भावः। केचिस्किञ्चिदानेनामित्रं मित्रं कुर्वन्तीति भावं वर्णयन्ति / अत्र चन्द्रस्य कपोल पावण्यन तदेकत्वकथनात् सामान्यालङ्कारः। 'सामान्यं गुणसाम्येन यन्त्र वस्त्वन्तरैकता' इति लक्षणात् // 26 //