________________ 166 नैषधमहाकाव्यम् / कथयन् वृत्तं निष्पसमेतत्सर्व निषधनरपतौ नले विषये भाण्यातुं तस्म निवेदयि. ज्यविस्यर्थः, प्रतस्थे। अभ्यो दमयन्ती वयसा तुल्या वयस्याः सख्यः 'नौवयो' इति यस्प्रत्ययः / 'हे प्रियसखि ! मुग्धे! कान्तारे विषमे निर्गतासि सङ्कटं प्रविष्टासि, पदवी विस्मृता किम् नु ? मा रोदीः, एहि, याम गच्छाम' इत्युपहतवचसो इत्तवचना: सत्यः एना निन्युः // 132 // (उड़ते समय ) दोनों पक्षोंको कपानेसे कार्यसिद्धिके मस्तित्वको स्पष्ट कहता (सूचित करता) हुमा उनमें से एक (इंस ) सब वृत्तान्तको निषधेश्वर (न) से करनेके खिये (निपपदेशको) गया तथा दूसरी ( दमयन्ती) को 'हे प्रियसखि ! दुर्गम मार्गमें का पड़ो हो / हे मुग्वे ( मोली या सुन्दरी ! ) क्या तुम रास्ता भूल गई हो, मत रोमो, भागो चले' इस प्रकार कहती हुई उसकी सखियों उसे ( राजमहलमें ) ले गयीं // 132 / / सरसि नृपमपश्यद् यत्र तत्तीरभाजः स्मरतरलमशोकानोकहस्योपमूलम् / किसलयदलतल्पग्लापिनं प्राप तं स ज्वलदसमशरेषुस्पर्धिपुष्पर्धिमौलेः // 13 // सरसीति / हंसो यत्र सरसि नृपमपश्यत् दृष्टवान् तस्य सरसस्तीरमाजस्ता हस्य ज्वलदिरसमशरस्य पछेषोरिषुमिः स्पर्द्धत इति तत्पर्षिनी तत्सरशी / पुष्पर्धिः पुष्पसमृद्धिः मौलिः शिखरं यस्य तस्याशोकानोकहस्य अशोकवृषस्य उप. मूलं मूले विभक्त्यर्थे अव्ययीभावः / स्मरेण तरलं चञ्चलं किसलयदलतल्पं पड़वप. प्रशयनं ग्लापयति स्वाङ्गदान म्लापयतीति तथोक्तं तं नृपं प्राप // 133 // उस (इंस ) ने जिस तडागपर नकको ( दमयन्तीके पास जानेसे पहले) देखा था, उसीके किनारे पर स्थित जलते हुए कामबाणों के साथ स्पर्धा करने वाले पुष्पोको मधिकता से युक्त शिखर ( अग्रभाग ) वाले (जिसके ऊपर फूले हुए पुष्प जलते हुए काममाणके तुस्य प्रतीत हो रहे हैं, ऐसे ) अशोक वृक्षके नीचे, काम (जन्य पीडा ) से चश्चक (छट. पटाते हुए ) तथा नवपल्लवों की शय्याको ( काम-सन्तापसे ) मलिन करते हुए उस ( नल ) को पाया। [ दमयन्तोके पास जानेके पहले हंसने जिस तमगपर नलको देखा था, उसीके तौरपर स्थित पुष्पित अशोक वृक्षके नीचे कामपोडासे छटपटाते हुए तथा नवपल्लमोंकी शय्याको तापसे महिन करते हुए नलको दमयन्तीके यहाँसे कौटकर भी पाया / यद्यपि नक हंसको दमयन्तीके पास भेजकर वहाँसे उद्यानगृहमें चले गये थे ( 2163 ) तथापि वहाँसे लौटे हुए हंससे मिलने के लिए उसी तडाग पर पुनः मा गये थे] // 19 // परवति ! दमयन्ति ! त्वां न किञ्चिद्वदामि द्रुतमुपनम किं मामाह सा शंस हंस !|