________________ 110 नैषधमहाकाव्यम् / प्रसूनवृष्टिं युवतिश्च युवा च युवानी, 'पुमान् स्त्रिये'त्येकशेषः / युवा प्रतिच्छतं स्वीकुरुतम् / युद्धविक्रान्ता हि देवैः पुष्पवृष्टया सम्भाव्यन्त इति भावः // 124 // __ हे दमयन्ती ! युवक तथा युक्ती तुम दोनों क्रीडावनमें ( रतिकालमें किये गये) अनेक प्रकारके आसनोंसे अनेकविध सुरतरूप मलयुद्धसे अतिशय हर्षित वायुओं ( पक्षा०मलयुद्धसे हृष्ट देवों ) से बारबार की गई पुष्पवृष्टिको ग्रहण करो। [ क्रीडोद्यानमें रति करते हुए तुम दोनों पद्मबन्ध आदि आसनोंको करते हुए अनेक प्रकारकी रति करोगे, जो मल्लयुद्ध-सा होगा, उस समय हृष्ट देवगण बार-बार पुष्पवृष्टि करेंगे' अथ च-तुम्हारे मस्तकसे पुष्प गिरेंगे, या-वायुस कम्पित वृक्षोंसे पुष्प गिरेंगे, उन्हें तुमलोग ग्रहण करोगे दो शूरवीरोंके युद्धसे हषित देवलोग पुष्पवृष्टि करते हैं तथा उन पुष्पोंको वे शूरवीर ग्रहण करते हैं ] // 124 / / अन्योन्यसङ्गमवशादधुना विमातां तस्यापि तेऽपि मनसी विकसद्विलासे / स्रष्टं पुनमेनसिजस्य तनुं प्रवृत्तमादाविव द्वयणुककृत्परमाणुयुग्मम्||१२५।। अन्योन्येति / किं च, अधुना अन्योन्यसङ्गमवशाद्विकसद्विलासे वर्धमानोल्लासे तस्यापि तेऽपि नलस्य तव च मनसी मनसिजस्य कामस्य तनुं शरीरं पुनः स्रष्टुमारब्धुं प्रवृत्तमत एवादी द्वाभ्यामारब्धं कार्य द्वयणुक तस्करोतीति तत्कृत् तदारम्भकं, करोतेः किप / तत्परमाणुयुग्ममिवेत्युत्प्रेक्षा / तार्किकमते मनसोऽणुत्वादिति भावः / विभातां कार्यारम्भकपरमाणुयुगलवदविश्लेषेण विराजतामित्यर्थः। भातेर्लोट् , 'तस्थे ति तसः तामादेशः॥ 125 // __ इस समय परस्परके समागम होनेसे बढ़ते हुए विलासवाले उस ( नल) का भी तथा तुम्हारा भी ( एक एक परमाणु मिलनेसे दो परमाणु मात्रावाले ) मन फिर कामदेवके शरीरकी रचना करनेके लिए तत्पर पहले द्वथणुकको बनानेवाले परमाणुदयके समान शोभित होवें। [ मनकी मात्रा एक परमाणुके बराबर है / किसी शरीरादिकी रचना करनेके लिए सर्वप्रथम दो परमाणुओंको मिलाकर द्वथणुक बनाया जाता है, इसी क्रमसे बढ़ातेबढ़ाते इष्ट रचनाको पूरा किया जाता है / तुम्हारा तथा नलका इतना गाढ़ अनुराग है कि परमाणुरूप तुम दोनोंका मन एक होकर थणुकरूप हो जायेगा, और इस क्रमसे कामदेवकी शरीरकी रचना पुनः हो जानेसे सम्भव है वह शरीर हो जायेगा] // 125 // कामः कोसुमधापदुर्जयममु जेतु नृप त्वा धनुवल्लीमव्रणवंशजामधिगुणामासाद्य माधत्यसौ। प्रीवालस्कृतिपट्टसूत्रलतया पृष्ठे कियल्लम्बया भ्राजिष्णुं कषरेखयेव निवसत्सिन्दूरसौन्दर्यया / / 126 / / काम इति / असौ यो नलजिगीषुरिति भावः / कामः कौसुमेन चापेन दुर्जय जितेन्द्रियत्वादिति भावः / अमुं नृपं नलं जेतुमव्रणवंशजां सत्कुलप्रसूतां दृढवेणु