________________ तृतीयः सर्गः। 161 तुमने इतना ( दुर्लभ होना ) क्यों कहा ? जो चित्तरूपो पगडण्डी ( आगे-पीछे होकर 1-1 आदमीके चलने योग्य पतला रास्ता) में भी हैं, उसे प्राप्त किया जाता है, क्योंकि जहांपर चित्तका भी अन्धकार हैं अर्थात् जिसे मन भी नहीं देखता-जो मनोऽगोचर हैउस ब्रह्मको उद्योगी लोग (या-सीधे रास्तेसे चलनेवाले लोग ) प्राप्त कर लेते है ! [ तुमने चन्द्रमाको हाथसे पकड़नेकी बात कहकर उसे इतना असाध्य क्यों बना दिया ?, क्योंकि बहुत सङ्कीर्ण मार्ग ( पगडण्डी ) में भी स्थित वस्तुको प्राप्त कर लिया जाता हैं, और जिस ब्रह्मका मन भी नहीं प्रत्यक्ष करता, उसे भी प्रयत्न करनेवाले प्राप्त कर लेते हैं; अतएव तुमने जो कहा उसका अभिप्राय मैंने समझ लिया है, मुझसे अपना अभिप्राय छिपाना व्यर्थ है / तथा जिसे तुम चन्द्रमाको हाथ से पकड़ेनेके समान अशक्य समझती हो, वह नलप्राप्तिरूप कार्य वैसा अशक्य नहीं है, उसके लिये तुम्हें प्रयत्न करना होगा ] // 63 / / ईशाणिमैश्वर्यविवर्तमध्ये लोकेशलोकेशयलोकमध्ये। तिर्यश्चमप्यश्च मृषानभिज्ञरसज्ञतोपज्ञसमज्ञमज्ञम् // 64 // अथ मयि मृषावादित्वाशङ्कया वक्तुं सङ्कोचस्तञ्चन शङ्कितव्यमित्याह-ईशेस्यादिना त्रयेण / ईशस्य यदणिमैश्वर्य तस्य विवर्ती रूपान्तरं मध्यो यस्याः सा तथोक्ता हे कृशोदरीत्यर्थः। लोकेशलोके शेरत इति लोकेशलोकेशयाः ब्रह्मलोकवासिनः 'अधिकरणे शेतेरि त्यचप्रत्ययः। 'शयवासवासिवकालादित्यलुक तेषां लोकानां जनानां मध्ये अझं मूढं तिर्यनं पक्षिणमपि मामिति शेषः। मृषा अनृतं तस्य अनभिज्ञा रसज्ञा रसना यस्य तस्य भावस्तत्ता सत्यवादितेत्यर्थः। उपज्ञायत इति उपज्ञा आदावुपज्ञाता, 'उपज्ञा ज्ञानसाचं स्यादि'त्यमरः / 'आतश्चोपसर्गे' इत्यङ्प्रत्ययः बहुलग्रहणात् कर्मार्थत्वं तथात्वेन ज्ञातं तदुपज्ञम् 'उपज्ञोपक्रम तदाद्याचिख्यासायामिति नपुंसकत्वम् / समं साधारणं सर्वैर्जायत इति समज्ञा कीर्तिः पूर्ववदप्रत्ययः, तदुपर्श तथात्वेनादौ ज्ञाता समज्ञा कीर्तिर्येन तं तथोक्तं मामञ्च, सत्यवादिनं विद्वीत्यर्थः / अञ्चतेर्गत्यर्थत्वात् ज्ञानार्थत्वम् // 64 // ___ ( मुझे अपना अभिप्राय नहीं कहने पर भी उसे जाननेका अभिमान क्यों करते हो, ऐसे दमयन्तीके आक्षेप का समाधान राजहंस करता है-) हे कृशोदर (दमयन्ती) ! ब्रह्मलोकके निवासी लोगों में सत्यवादिता एवं सहृदयताके आद्य ज्ञानसे युक्त सर्वश भी मुझ तिर्यञ्चको अश (मूर्ख, या असत्यवक्ता हृदयहीन-जैसा चाहो, वैसा) समझो, [अथवा-..."मूर्ख तिर्यञ्चको भी सत्यवादिता तथा सहृदयताके प्रथम ज्ञानसे युक्त सर्वश समझो, या-उक्तरूप मेरी पूजा करो / अथवा-असत्य-भाषण नहीं करनेवाली जीभके भाव ( वचन ) से युक्त आद्यज्ञानसे कीर्तिवाले मुझ तिर्यञ्चको भी अश ( मूर्ख, या-असहृदय असत्यवक्ता-चाहे जैसा समझो..." ) // 64 // मध्ये श्रुतीनां प्रतिवेशिनीनां सरस्वती वासवती मुखे नः /