________________ नैषधमहाकाव्यम् / अवश्य है, तथापि मेरे प्राणनाथ तो नल ही है। [ यदि पिताजी किसी दूसरेके साथ मेरा विवाह करना चाहेंगे तो जन्मातरमें भी नलको पतिरूपमें पाने के लिए मैं प्राणत्याग कर दूगी ] // 79 // तदेकदासीत्वपदादुदमे मदीप्सिते साधु विधित्सुता ते / अहेलिना किं नलिनो विधत्ते सुधाकरेणापि सुधाकरेण / / 80 // फलितमाह-तदेकेति / तस्य नलस्यैकस्यैव दासीत्वं तदेव पदमधिकारस्तस्मा. दुदने अधिके मदीप्सिते पत्नीत्वरूपे विषये तव विधित्सुता चिकीर्षुतैव साधु साध्वी, अविचारेण मनोरथपूरणमेव ते युक्तमिति भावः। साध्विति सामान्योपक्रमान्न पुंसकत्वम्, 'शक्यं श्वमांसेनापि सुन्निवर्तयितुमि ति भाप्यकारप्रयोगात् / ननु क्रिमः त्राभिनिवेशेन गुणवत्तरं चेद्यवान्तरस्वीकारे को दोषस्तत्राह-अहेलिनेति / नलिनी सुधाकरेण अमृतदीधितिनापि अहेलिना असूर्यण सुधाकरेण चन्द्रण किं विधत्ते ? किं तेन तस्या इत्यर्थः / तद्वन्ममापि किं युवान्तरेणेति भावः। दृष्टान्तालङ्कारः // 8 // ___ उस ( नल ) की एकमात्र दासी-पदसे भी श्रेष्ठ मेरे अभीष्ट को पूरा करनेकी तुम्हारी चाहना अच्छी है ? अर्थात् कदापि नहीं, क्योंकि सूर्यभिन्न अमृतकर भी चन्द्रमासे कमलिनी क्या करती है ? अर्थात् कुछ नहीं। [जिस प्रकार कमलिनी अमृतकिरण भी चन्द्रमाकी इच्छा नहीं करके सूर्यको हो चाहती है, उसी प्रकार में नलका दासी बनकर ही रहना चाहती हूं, दूसरे किसीकी पटरानी भी नहीं होना चाहती, अत एव तुमने नल-प्राप्तिसे भिन्न मेरे दूसरे मनोरथकी जो साधना चाहते हो, वह दूसरा कोई भी मेरा मनोरथ नहीं है ] / / 80 // तदेकलुब्धे हदि मेऽस्ति लन्धुं चिन्ता न चिन्तामणिमप्यनम् / वित्ते ममैकस्स नलत्रिलोकीसारो निधिः पद्ममुखस्स एव / / 81 / / तदिति / तस्मिन्नेवैकस्मिन् लुब्धे लोलुपे मे हृदि अनघं चिन्तामणिमपि लब्धं चिन्ता विचारो नास्ति, तथा वित्ते धनविषयेऽपि मम स नलस्त्रिलोकीसारस्त्रैलोक्यश्रेष्टः पद्ममुखः पद्माननः एकः स नल एव त्रैलोक्यसारः, पद्मनिधिश्च / नलादन्यत्र कुत्रापि मे स्पृहा नास्ति / किमुत युवान्तर इति भावः // 81 // _ इस कारण उस नलमात्रके लोभी ( पानेको इच्छा करनेवाले ) मेरे मनमें बहुमूल्य चिन्तामणिको भी पानेकी चिन्ता नहीं है, सम्पूर्ण त्रिलोकीका सारभूत् कमल तुल्य सुन्दर मुखवाले वे ( नल) ही हमारे निधि (प्राणसर्वस्व स्वामी) हैं [ अथ च-पद्म है, प्रथम जिसके, ऐसे वे ही मेरे कोष हैं, अतः चिन्तामणिको जी मैं नहीं चाहती हूँ ] / / 81 / / श्रुतश्च दृष्टश्च हरित्सु मोहाद् ध्यातश्च नीरन्ध्रिनबुद्धिधारम् / ममाद्य तत्प्राप्तिरसुव्ययो वा हस्ते तवास्ते द्वयमेव शेषः / / 82 // भुतश्चेति / किं बहुना स नलः श्रुतः दूतद्विजनन्द्यादिमुखादाकर्णितश्च, मोहाव