________________ तृतीयः सर्गः। 177 तथेति / तथाऽभिधात्री तां राजपुत्रीं भैमी नैषधे नले बद्धरागां निर्णीय तेन विहायसा विहगन विहस्य भूयः चन्चूपुटस्य मौनमुद्रा निर्वचनत्वममोचि आवादीदित्यर्थः // 99 // इसके बाद वैसा ( 3-75-96 ) कहनेवाली राजकुमारीको नलमें अनुरक्त निश्चित कर वह राजहंस चञ्चुपुटकी मौनमुद्राका त्याग किया अर्थात् बोला-।। 99 // ___ इद यदि आमापतिपुत्रि ! तत्त्वं पश्यामि तन्न स्वविधेयमस्मिन् / त्वामुच्चकैस्तापयता नलं च पश्चेषुणैवाजनि योजनेयम / / 100 // इदमिति / हे उमापतिपुत्रि ! इदं त्वदुक्तं तत्त्वं यदि सत्यं यदि तत्तर्हि अस्मिन् विषये स्वविधेयं मत्कृत्यं न पश्यामि, किन्तु त्वां नृपं च उच्चकैरत्यन्तं तापयता पम्वे. पुणेव इयं योजना युवयोः सङ्घटना अजनि जाता! जनेः कर्मणि 'चिणो लुक॥१०॥ ___ हे राजकुमारी ! यदि यह सत्य है, तो इस विषयमें मैं अपना कोई कार्य नहीं देखता हूँ अर्थात् मुझे कुछ करना नहीं है। क्योंकि तुम्हें तथा राना ( नल ) को अत्यन्त सन्तप्त करते हुए कामदेवने ही यह योजना ( दोनोंका मिलन ) तैयार की है। [ लोकमें भी लाख, लोहा आदि धातुको सन्तप्तकर संयुक्त होते हुए देखा जाता है ] / / 100 / / त्वद्वद्धबुद्धहिरिन्द्रयाणां तस्योपवासातनां तपोभिः। स्वामद्य लब्ध्वाऽमृतकृप्तिभाजां स्वं देवभूर्य चरितार्थमस्तु // 101 // त्वदिति / किन्तु त्वद्वद्धबुद्धेः त्वदायत्तचित्तस्य त्वामेव ध्यायत इत्यर्थः / अत एव तस्योपवासवतिनां त्वदासङ्गाद्विषयान्तरव्यावृत्तानां तपोभिरुक्तोपवासव्रतरूपेरथ स्वां लब्ध्वा मन्मुखेन लब्धप्रायां निश्चित्य साक्षात्कृत्येति च गम्यते, अत एव अमृतेन या तृप्तिस्तद्भाजा बहिरिन्द्रयाणां स्वं स्वकीयं देवभूयं देवत्वमिन्द्रियत्वं सुरत्वञ्च, 'देवः सुरे राज्ञि देवमाख्यातमिन्द्रियमिति विश्वः / चरितार्थ सफलमस्तु / अमृतपानेकफलस्वाद्देवत्वं स्यादिति भावः / अर्थान्तरप्रतीतेर्वनिरवेत्यनुसन्धेयम् // तुममें ही बुद्धि लगाये हुए उस ( नल ) की (बाह्य विषयोंको ग्रहण नहीं करनेसे ) उपवास व्रत करनेवाली तथा तपस्याओंके द्वारा ( मुझसे सुनकर; या भविष्यमें प्रत्यक्षतः ) तुम्हें पाकर अमृततुल्य वृत्तिको प्राप्त करनेवाली इन्द्रियोंका अपना देवत्व सार्थक होवे / [जिस प्रकार काई तपस्या करता हुआ भोजन नहीं करता तथा एकमात्र ब्रह्मका ध्यान करता रहता है, फिर वह उन तपस्याओंके प्रभावसे ब्रह्मको पाकर अमृतभोक्ता देवके भावको प्राप्त करता है; उसी प्रकार नल भी सदा एकमात्र तुम्हारा ही ध्यान करते हैं, उनकी नेत्रादि बाह्येन्द्रियाँ रूपादि अपने-अपने विषयोंको ग्रहण नहीं करनेसे मानो उपवास कर रही है, नलकी वे बाह्येन्द्रियाँ तपस्याके प्रभावसे मेरे कहने पर तुमको प्राप्त कर लेंगी ( या--भविष्यमें प्रत्यक्ष देख लेंगी) इस प्रकार तुम्हारा दर्शन उन नेत्रादि इन्द्रियों के लिए अमृत भोजन तुल्य होकर 'आदित्यश्चक्षुभूत्वाऽक्षिणी प्राविशत्' इत्यादि