________________ तृतीयः सर्गः। 187 स्तनद्वये तन्वि ? परं तवैव पृथौ यदि प्राप्स्यति नैषधस्य / अनल्पवैदग्ध्यविवर्धनीनां पत्रावलीनां रचना समाप्तिम् // 11 // स्तनद्वय इति / हे तन्वि ! किञ्च नैषधस्य नलस्य अनल्पेन महता वैदग्ध्येन नैपुण्येन विवधनीनामुज्जम्भणीनां पत्रावलीनां रचना समाप्ति सम्पूर्णतां प्राप्स्यति यदि, तर्हि पृथौ पृथुनि भाषितपुंस्कत्वाद्विकल्पेन पुंवद्भावः / तवैव स्तनद्वये परं प्राप्स्यति, नान्यस्या इत्यर्थः / अन्यस्या अयोग्यत्वादितिभावः // 118 // नलकी अत्यधिक चातुर्यसे बढ़नेवाली पत्रावलि-श्रेणियोंको रचना यदि समाप्त हो सकती है, तो केवल तुम्हारे विशाल दोनों स्तनोंपर ही हो सकती है। [नल स्त्री-स्तनों पर पत्त्रावलिश्रेणिको बनानेमें इतने चतुर हैं कि अन्य स्त्रियोंके छोटे-छोटे स्तनों पर उनकी पत्रावलिरचना समाप्त ही नहीं होती, किन्तु तुम्हारे स्तन बड़े-बड़े हैं, अतः मैं सम्भावना करता हूं कि इन दोनों स्तनोंपर नलकी पत्त्रावलि रचना की निपुणता पूरी हो जायेगी // 118 // एकस्सुधांशुन कथञ्चन स्यात्तप्तिक्षमस्त्वमयनद्वयस्य | त्वल्लोचनासेचनकस्तदस्तु नलास्यशीतद्युतिसद्वितीयः // 119 / / एक इति / एकः सुधांशुस्त्वन्नयनद्वयस्य कथञ्चन कथञ्चिदपि तृप्तौ प्रीणने क्षमो न स्यात्तत्तस्मान्नलास्यशीतद्युतिना नलमुखचन्द्रेण सद्वितीयः सन् त्वलोचनयोरासे. चनकस्तृप्तिकरोऽस्तु / 'तदासेचनकं तृप्तोर्नास्त्यन्तो यस्य दर्शनादि'त्यमरः / आसि. च्यते अनेनेत्यासेचनकं, करणे ल्युट , स्वार्थे कः // 19 // ___ एक चन्द्रमा तुम्हारे (चकोरतुल्य ) दो नेत्रोंकी तृप्ति करनेमें समर्थ नहीं हो सकता, इस कारण नलके मुखरूप चन्द्रमासे सहायक युक्त चन्द्रमा तुम्हारे दो नेत्रोंकी पूर्ण तृr करने वाला होवे / [ तुम्हारे नेत्र चकोर-नेत्रके समान हैं चकोरनेत्र चन्द्रमाका पान करते हैं / और एक चन्द्रमा तुम्हारे दो नेत्रोंको कदापि सन्तृप्त करनेमें समर्थ नहीं हो सकता, अतः नलके मुखरूप चन्द्रमासे मिलकर दो चन्द्रमा होने पर तुम्हारे दो नेत्र पूर्णतः सन्तुष्ट हो सकते हैं / तुम्हारे नेत्र चकोरनेत्रतुल्य और नलमुख चन्द्रतुल्य है, अत एव चकार चन्द्रमाको देखकर जिस प्रकार अधिक सन्तुष्ट होता है, वैसे ही तुम नलके मुखचन्द्र को देखकर अत्यन्त सन्तुष्ट होवोगी ] // 119 // (युग्मम् ) अहो तपःकल्पतरुनलीयस्त्वत्पाणिजाग्रस्फुरदकरश्रीः। त्वद्मयुगं यस्य खलु द्विपत्री तवाधरो रज्यति यत्कलम्बः // 120 // यस्ते नवः पल्लवितः कराभ्यां स्मितेन यः कोरकितस्तवास्ते / अङ्गम्रदिम्ना तव पुष्पितो यः स्तनश्रिया यः फलितस्तवैव // 121 / /