________________ 586 नैषधमहाकाव्यम् / वैदीत्यादिविशेषणाद् गुणैर्भावुकमिवेत्युपमापलङ्कारो युज्यते। तथाहि चन्द्रिका या अब्धिमपि गभीरमपीति भावः / उत्तरलीकरोति क्षोभयतीति यत् इतोऽपि अभ्य. धिका स्तुतिवर्णना का खलु ? न कापीत्यर्थः / दृष्टान्तालङ्कारः / एतेन नलस्य समुदगाम्भीर्य दमयन्त्याश्चन्द्रिकाया इव सौन्दर्यं च व्यज्यते // 116 // __ हे दमयन्ति ! ( पक्षा०-वैदर्भी रीति ध्वनित होती हैं ), तुम धन्य हो, जिस तुमने उदार गुणों ( पक्षा०- श्रेष्ठ इलेपादि गुणों, या-उत्तम रस्सियों-जालों) के नलको भी आकृष्ट कर लिया ( अथवा--तुम उदार गुणोंसे धन्य हो, जिस तुमने नलको भी आकृष्ट कर लिया (, इससे अधिक प्रशंसा क्या है ? जो ( चाँदनी ) ( अतिशय गंभीर ) समुद्रको भी चञ्चल करती है / पाठा०-इससे अधिक चाँदनीकी क्या प्रशंसा है ? जो समुद्रको भी....... | [ वैसे ही तुमने परम गंभीर नलको भी अपने सौन्दर्यादि गुणोंसे आकृष्ट कर लिया, अतः धन्य हो / इससे नल समुद्र के समान गम्भीर हैं तथा दमयन्ती चाँदनीके समान सुन्दर एवं आह्लादिका है, यह सूचिक होता है ] // 116 / / नलेन भायाश्शशिना निशेव त्वया स भायान्निशया शशीव / पुनःपुनस्तद्युगयुग्विधाता स्वभ्यासमास्ते नु युवां युयुक्षुः॥ 117 // फलितमाह--नलेति / शशिना निशेव त्वं नलेन भायाः। भातेराशिषि लिङ् / सोऽपि निशया शशीव त्वयाभायात् , भातेः पूर्ववदाशिषि लिङ। किं च अत्र दैवा. नुकूल्यमपि सुभाव्यमित्याह पुनः सुनस्तयोनिशाशशिनोर्युगं युनक्ति योजयतीति तयुगयुक विधाता युवां नलं त्वाञ्च 'त्यदादीनि सर्वैर्नित्यमिति एकशेषः / योक्तुमिछतीति युयुचर्यजेः सन्नन्तादुप्रत्ययः स्वभ्यासमभ्यासस्य समृद्धौ निरन्तराभ्यास इत्यर्थः / समृद्धयर्थेऽव्ययीभावः / ततः परस्याः सप्तम्या वैकल्पिकत्वादम् भावः / आस्ते नु ? तथाऽभ्यस्यति किमित्यर्थः / अत्र तादयं चतुर्थ्या अम्भाव इति व्याख्याने अभ्यासार्थमभ्यस्यतीत्यर्थः स्यात् तदात्माश्रयत्वादित्यपेक्षणीयम् / अत्र दमयन्ती. नलयोरन्योन्यशोभाजननोक्तेरन्योन्यालङ्कारः। 'परस्परक्रियाजननमन्योन्यमिति लक्षणात् / उपमाद्वयानुप्राणित इति सङ्करः / तन्मूला चेयं विधातुः पुनर्निशाशशियोजनायां दमयन्तीनलयोजनाभ्यासत्वोत्प्रेक्षेति // 117 // __(अब आशीर्वाद देता हुआ कहता है--) तुम चन्द्रमासे रात्रिके समान नलसे शोभित होवो, वे नल रात्रिसे चन्द्रमाके समान तुमसे शोभित होवें, बार-बार उन दोनों ( रात्रि तथा चन्द्रमा ) की जोड़ीको संयुक्त करनेवाले ब्रह्मा तुम दोनों ( तुम्हें तथा नल) को संयुक्त करनेके लिये मानो अभ्यास करते हैं। [ लोकमें भी कोई कारीगर श्रेष्ठ वस्तुको रचना करनेके लिए बार-बार वैसी एक ही वस्तुकी रचनाकर जैसे अभ्यास करता है, वैसे ही मानो तुम दोनोंको संयुक्त करनेके लिए ही ब्रह्मा चन्द्रमा तथा रात्रिको बार-बार संयुक्तकर अभ्यास करते हैं, अन्यथा अनेक बार चन्द्रमा तथा रात्रिको संयुक्त करना व्यर्थ होजाता] / / 117 //