________________ 180 नैषधमहाकाव्यम्। प्रदशम विद्यमान भी ( अनुरागवश ) हृदयमें स्थित तुम किस प्रकारसे इस नलके प्राणतुल्य नहीं हो ? अर्थात् सब प्रकारसे नलके प्राणवत् प्रिया हो / अथवा-बहिः प्रदेशमें विद्यमान भी नासिका तथा मुखकी गति (सौन्दर्य से नलके अन्तःकरणमें स्थित हो और इसीसे प्राणप्रिया हो / वायु नासिका तथा मुखके मार्गसे वारह अंगुल बाहर निकलकर 'प्राण' कहलाती ) / उस (प्राणायित होने ) में आश्चर्य है एकमात्र त्वन्मात्र-परायण ( केवल तुमसे ही जीतनेवाला ) नलका मन जो चित्तको आक्रान्त नहीं करता इसमें आश्चर्य नहीं है / [ पाठा०- त्वन्मात्र-परायण नलका मन जो चित्रको आक्रान्त नहीं करता इसमें आश्चर्य है अर्थात् विरह-पीडामें मनको चञ्चल रहना चाहिए, किन्तु वह चित्रवत् व्यापारशून्य हो जाता है यह आश्चर्य है / त्वन्मात्रपरायण होनेसे नलका मन अन्यत्र कहीं भी नहीं लगता, अतएव तुम उसके प्राणतुल्य प्रिया हो / अथवा--चित्र उक्तरूप नल-मनको जो आक्रान्त ( पराधीन ) नहीं करता, यह आश्चर्य है ? अर्थात् कोई आश्चर्य नहीं है, क्यों कि वह ( नलका मन ) त्वन्मात्रपरायण है / अधबा-उक्तरूप नल-मन चित्रको आक्रान्त नहीं करता यह आश्चर्य है; क्योंकि चित्रको सभी लोग देखते हैं, किन्तु नल-मन नहीं देखता, यह आश्चर्य है ] // 105 // अजसमारोहसि दूरदीपों सङ्कल्पसोपानतति तदोयाम् / श्वासान् स वर्षत्यधिकं पुनयद्धयानात्तव वन्मयतान्तदाप्य // 106 // अथ द्वाभ्यां सङ्कल्पावस्थामाह-अजस्रमिति / दूरदीर्घामत्यन्तायतां तदीयां सङ्कल्पा मनोरथा एव सोपानानि तेषाम् ततिं पङ्तिमजस्रं त्वमारोहसि, श्वासान् पुनः स नलः अधिक वर्षति मुञ्चतीति यत् तच्छासवर्ष तव ध्यानात् त्वन्मयतां त्वदात्मकत्वमाप्य प्राप्य, आप्नोतेराङ्, समासे क्त्वो ल्यबादेशः, अन्यथा कथ. मन्यायासादन्यस्य श्वासमोक्ष इति भावः / अत्र श्वाससोपानारोहणयोः कार्यकारणयोयधिकरण्योक्तेरसङ्गत्यलङ्कारः 'कार्यकारणयोभिन्नदेशत्वे स्यादसङ्गतिरि' तिल. क्षणात् तन्मूला चेयं तादात्म्योत्प्रेक्षेति सङ्करः // 106 // (अब तृतीया 'सङ्कल्प( दशाका वर्णन करता है-) तुम नलकी सङ्कल्परूप सीढ़ियों की श्रेणी पर बहुत दूर तक चढती ही (दमयन्ती मुझे कैसे मिलेगी, उसे पाकर मैं उसके साथ इस प्रकार वार्तालाप, क्रीडा, बिहार आदि करूगा इत्यादि अनेकविध सङ्कल्प तुम्हारे विषय में नल किया करते हैं ) / वे नल जो बार-बार श्वासोंकी अधिक वृष्टि करते हैं अर्थात् अधिक श्वास लेते हैं, वह त्वन्मय ( तुम्हारी चिन्तामें लीन ) होकर तुम्हारे ध्यानके कारण करते हैं। [ जो बहुत दूर तक सीढ़ियोंपर चढ़ता है, वही अधिक श्वास लेता ( हांफता) है, परन्तु यहाँ पर जो तुम नलके सङ्कल्परूप सीढ़ियों पर चढ़ती हो, अतः तुम्हें अधिक श्वास लेना चाहिए था, परन्तु नल अधिक श्वास लेते हैं, यह विपरीत बात हैं / परन्त नल स्वन्मय ( त्वद्रूप ) होनेसे अधिक श्वास लेते हैं, यह उचित है, क्योंकि अब नलका तथा तुम्हारा कोई भेदभाव ही नहीं रह गया है ] // 106 //