________________ तृतीयः सर्गः। 160 मृषागिरमसत्यवाचं कर्तुमनल एव शरणम् अन्यथा मरणमेव शरणमिति भावः॥ हां तुमने सचमुच यह ठीक तर्क किया है कि मैं स्वयं अनल (अग्नि पक्षा०'नलभिन्न ) का आश्रय कर लूगी, इस ( नल ) के बिना अपनी आत्मापर प्रहार करनेके लिए तैयार हूँ अर्थात् नलके नहीं मिलनेपर अग्नि में जलकर मर जाऊँगी, किन्तु तुममें राजा नलके यहां असत्यवक्ता नहीं बनाऊंगी / / 77 // मद्विप्रलभ्यं पुनराह यस्त्वां तर्कस्स किं तत्फलवापि मूकः ? / अशक्यशङ्कयभिचारहेतुर्वाणी न वेदा यदि सन्तु के तु ? // 7 // मदिति / किञ्च, यस्तकं उहः मद्विप्रलभ्यं मया विप्रलम्भनीयं 'पोरदुपधादिति यत्प्रत्ययः / आह बोधयतीत्यर्थः स तर्कः तस्य विप्रलम्भस्य फलवाचि प्रयोजनाभिधाने मूकः अशक्तः किम् ? अतो मय्यसत्यवादित्वशङ्का न कार्यत्यर्थः / कथमेतावता सत्यवाक्यत्वनिश्चयः अत आह-अशक्या शङ्का यस्य सः अशक्यशङ्कः शवितुमशक्यः व्यभिचारहेतुर्विप्रलिप्सालक्षणो यस्याः सा वाणी न वेदा यदि न प्रमाणं चेत्तर्हि के तु वेदाः सन्तु ? न केऽपीत्यर्थः सम्भावनायां लोट / वेदवाचामसत्यस्वे मद्वाचोऽप्यसत्यत्वम्, नान्ययेति भावः // 78 // जिस तर्कसे तुम यह समझते हो कि 'यह दमयन्ती मुझे (हंसको) असत्य कहकर ठग रही है', वह तक उस ठगनेके परिणामको कहनेमें मूक क्यों है ( तुम्हें झूठाकर मुझे क्या लाभ होगा, यह भी तुम्हें उसी तर्क से पूछना चाहिये ), जिसमें कोई शक नहीं हो सकती ऐसे व्यभिचार कारणवाले वचन वेद (वेदके समान सत्य ) नहीं हैं, तो वेद क्या है ?, [ जिसमें व्यभिचार होनेकी शङ्का ही नहीं उठती, ऐसे ही वचन वेदतुल्य साथ है, अतः तुम्हें ठगनेपर मुझे कोई फल ( लाम ) नहीं होगा, इस कारग मैं तुमें मलको पति बनानेके लिए कहकर ठग नहीं रही हूं, किन्तु सत्य कह रही हू] // 78 / / अनवधायंत्र जुहोति किं मां तातः कृशानो न शरीरशेषाम् ? / इष्टे तनूजन्मतनोस्तथापि मत्प्राणनाथस्त नलस्स एव / / 05 // एवं निजेच्छया नलान्यशङ्कां निरस्य पित्राज्ञयापि तां निरस्यति-अनैषधायेति / ततो मम जनकः / 'तातस्तु जनकः पिता' इत्यमरः / मामनैषधाय नैषधानलाइनबस्मै एव जुहोति ददातीति काकुः, तदा शरीरशेषां मृतां तत्रापि कृशानी न किं न तु जीवन्तीं नग्नेरन्यत्र जुहोतीत्यर्थः। तदङ्गीकर्तव्यमेवेति भावः / कुतः ? स जनकः तनूजन्मतनोः आत्मजशरीरस्य ईष्टे स्वामी, भवतीत्यर्थः। अधागर्थदयेशां कर्मणी'ति शेषे षष्ठी / तथापि शरीरस्य पितृस्वामिकत्वेऽयीत्यर्थः। मत्प्राणनाथस्तु नल एवं प्राणानामतज्जन्यत्वादिति भावः / अतो मय्यविश्वासं मा कुर्वित्यर्थः॥ 79 // यदि पिताजी मुझे नल-भिन्नके लिए देते हैं तो शरीरशेष (प्राणहीन-मृत ) मुझको अग्निमें ही क्यों नहीं फेंक देते ? कहो, वे (पिताजी) सन्तानके शरीरके अधिकारी