________________ तृतीयः सर्गः। 169 भ्रान्तिवशात् हरित्सु दृष्टः साक्षात्कृतश्च, तथापि नीरन्ध्रितबुद्धिधारं निरन्तरीकृत. तदेकविषयबुद्धिप्रवाहं यथा तथा ध्यातश्च / अथाद्य मम तत्प्राप्तिनलप्राप्तिसुन्ययः प्राणत्यागो वा द्वयमेव द्वयोरन्यतर एवेत्यर्थः / शेषः कार्यशेषः स च तव हस्ते आस्ते त्वदायत्तः तिष्ठतीत्यर्थः / अत्र तत्पदार्थश्रवणमनननिदिध्यासनसम्पन्नस्य ब्रह्मप्राप्तिदुःखोच्छेदलक्षणमोक्षो गुर्वायत्त एवेत्यर्थान्तरप्रतीतिर्ध्वनिरेव अभिधायाः प्रकृतार्थनियन्त्रणादि संक्षेपः॥ 82 // मैंने नलको ( दूत, बन्दी तथा द्विज आदिके मुखसे ) सुना है, भ्रमवश दिशाओं में देखा है तथा निरन्तर बुद्धिप्रवाहसे उनका ध्यान किया है; ( इस प्रकार मैने चक्षुःप्रीति आदि नव प्रकारको अवस्थाओंका अनुभव किया है और अब ) मुझे नलको पाना या मेरा मरना - दोनों तुम्हारे हार्थों में हैं, उनमें एकका शेष होगा अर्थात् मैं नलको वरूँगी, या मरकर दशमी अवस्थाको पाऊँगी ? [ 'सरूपाणामेकशेष एकविभक्तौ' (पा० सू० 1 / 2 / 64) से समानरूप वालोंका ही एकशेष होता है, परन्तु यहाँ विभिन्न रूपवालोंका भी एकशेष होना आश्चर्यजनक है / अथ च-जिस प्रकार श्रवण, दर्शन तथा ध्यानसे प्रत्यक्ष किये हुए ब्रह्मकी प्राप्ति किसी पुण्यात्माको ही होती है, उसी प्रकार उक्त प्रकारसे श्रवणादिसे प्रत्यक्ष किये गये नलकी प्राप्ति मुझे तुम्हारे अनुग्रह-विशेषसे होगी, अन्यथा नहीं / तथा-ब्रह्मप्राप्तिमें अ य ( दो अवयव वालों ) से हीन एकका ही शेष होता है ) // 82 // सञ्चीयतामाश्रुतपालनोत्थं मत्प्राणविश्राणनजं च पुण्यम् / निवार्यतामार्य ! वृथा विशङ्का भद्रेऽपि मुद्रेयमये ! भृशं का ? |8|| सञ्चीयतामिति / हे हंस ! आश्रुतपालनोत्थं प्रतिज्ञातार्थनिर्वाहणोत्पन्नम् 'अङ्गी. कृतमाश्रुतं प्रतिज्ञातमित्यमरः। मत्प्राणानां विश्राणनं दानं तज्जन पुण्यं सुकृतं सञ्चीयतां संगृह्यता, हे आर्य! वृथा विशङ्का सन्देहो निवार्यताम् / अये ! अङ्ग / भद्रे पूर्वोक्तपुण्यरूपे श्रेयसि विषये भृशङ्केयं मुद्रा औदासीन्यं, श्रेयसि नोदासितध्यमिति भावः // 83 // ('मेरा कार्य करनेसे तुम्हे पुण्यातिशय प्राप्तिरूप महान् लाभ होगा' इस आशयसे दमयन्ती कहती है-) प्रतिज्ञाके पालनसे उत्पन्न मेरे प्राणदानरूप पुण्यका संग्रह करो, हे आर्य ! व्यर्थकी विपरीत शङ्का (या-विशिष्ट शङ्का ) को छोड़िये, अरे ! शुभ कार्यमें भी अत्यधिक यह मुद्रा (चुप रहनेकी चेष्टा ) क्यों है ? [ अथवा-सज्जन, या विचारशील तुममें यह ( मौनधारण रूप ) चेष्टा क्यों है ? अब तुम मौन छोड़कर पूर्व स्वीकत वचनको पूरा करने के लिये स्पष्टरूपसे कहो ] / / 83 / / अलं विलध्य प्रिय' ! विज्ञ ! याञ्चां कृत्वापि वाक्यं विविध विधेये / यशःपथादाश्रवतापदोत्थात खलु स्खलित्वाऽस्तखलोक्तिखेलात // 54 // 1. 'प्रियविज्ञ !' इति पाठान्तरम् /