________________ तृतीयः सर्गः। 159 आना किस प्रकार सम्भव है। अर्थात् बहुत ही दुःसाध्य है / तथा जिसे कहा भी नहीं जाता उसे कार्य रूपमें सिद्ध करना अतिदुःसाध्य है। चन्द्रमाको हाथसे ग्रहणकी इच्छाको कौन निर्लज्ज ( अशानाधिक्य युक्त ) बालिका कहती है ? अर्थात् कोई भी नहीं / अथवाहे द्विजराज = पक्षियोंमें श्रेष्ठ राजहंस ! कौन निर्लज्ज बालिका विवाहको इच्छा को कहती है, अर्थात् अज्ञानयुक्त बालिका भी लज्जा छोड़कर अपने विवाहकी इच्छा प्रकट नहीं करती तो मैं किस प्रकार अपने विवाहकी इच्छा तुमसे प्रकट करूँ?-विवाहकी इच्छा होनेपर भी लज्जावश मैं तुमसे कहनेमें असमर्थ हूं, क्योंकि मैं बाला हूँ, प्रौढा नहीं और बालामें प्रौढाकी अपेक्षा लज्जा की मात्रा अधिक होती है // 59 // वाचं तदीयां परिपीय मृद्वी मृद्वीकया तुल्यरसां स हंसः / तत्याज तोषं परपुष्टघुष्ठे घृणा वीणाकणिते वितेने / / 60 // वाचमिति / स हंसः मृद्वीकया द्राक्षया, 'मृद्वीका गोस्तनी दाणे'त्यमरः / तुल्यरसां समानस्वादां मधुराामित्यर्थः / मृहीं मधुराक्षरांतदीयां वाचंपरिपीय अत्यादरादाकर्ण्य परपुष्टधष्टे कोकिलकूजिते तोषं प्रीतिं तत्याज, वीणाकणिते च घृणां शुगुप्सां 'घृणा जुगुप्साकृपयोरिति विश्वः / वितेने // 6 // वह हंस दाखके समान रसवाला (मीठा) सुकोमल दमयन्तीका वचन सुनकर कोयलके कुजनेमें सन्तोष ( हषित होना) छोड़ दिया तथा वीणाकी झनकार में घृणा कर लिया। [ कोयलके कूजने तथा वीणाके झनकारसे भी दमयन्तीका वचन मधुर एवं सरस था] // 6 // मन्दाक्षमन्दाक्षरमुद्रमुक्त्वा तस्यां समाकुश्चितवाचि हंसः। तच्छसिते किश्चन संशयालुगिरा मुखाम्भोजमयं युयोज // 6 // मन्दाति / तस्यां भैम्यां मन्दाक्षेण हिया मन्दा सन्दिग्धार्था अक्षरमुद्रा 'द्विजराजपाणिग्रह'त्याचारविन्यासो यस्मिन् तत्तथोक्तमुक्त्वा समाकुशितवाचि नियमितवधनायां सत्यामयं हंसस्तच्छंसिते भैमीभाषिते किचन किनिसंशया: सन्दिहानः सन् , 'स्पृहिगृहीत्यादिना आलुच प्रत्ययः। 'मुखाम्भोजं गिरा युयोज मुखेन गिरसुवारेत्यर्थः / / 61 // - लज्जासे थोड़ा अक्षर कहकर उस ( दमयन्ती ) के चुप होनेपर उसके कथनमें कुछ सन्देहयुक्त इस अपमे मुखकमलको वचनसे युक्त किया अर्थात् बोला- [दमयन्ती लज्जावश 'कोन निर्लज्ज वाला द्विजराजपाणिग्रहणाभिलाषको कहेगी ?? ऐसा कहकर चुप हो 1. 'मुखान्नोजम्' अत्र 'प्रशंसावचनैश्च' इति समासः' इति 'प्रकाश' कृत् / किन्तु मनोरमाकृता प्रशस्तशोभनरमणीयादीनां यौगिकानां शुचिमृद्वादीनां गुणवचनानां 'सिंहो माणवक' इत्यादी गोण्या वृत्या प्रशंसावाचकानाञ्च शब्दानां व्युदासत्य करिष्यमाणत्वेनो. क्ततया 'वचन' ग्रहणस्य रूढपरिग्रहार्थमेव स्वीकृतत्वेन 'उपमितं व्याघ्रादिभिः (पा० सू० 21 56 ) इत्यनेनोपसितसमासस्यवौचित्यतया भ्रान्तियुक्तं तदिति बोध्यम् /