________________ तृतीयः सर्गः। तावत्प्रथमं दर्शनीयः अथवा पूज्यश्चेति तावच्छब्दार्थः खलु 'रोचनं चन्दनं हेम मृदङ्ग दर्पणं मणिम् / गुरुमग्नि तथा सूर्य प्रातः पश्येत् सदा बुधः // ' इति शास्त्रा. दिति भावः॥ 56 // ( दमयन्ती अपनी निन्दा करती हुई हंसकी प्रशंसा करती है- ) सज्जनोंके दर्शनीय तुम स्वच्छ होनेसे आदर्श ( दृष्टान्त, पक्षा०-दर्पण) हो, जिसमें अपराधसहित मेरे सामने होने पर मेरा अपराध प्रतिबिम्बित हो गया है। [ स्वच्छहृदय वाले आदर्श पुरुषका सज्जन लोग दर्शन करते हैं, तथा ये आदर्श पुरुष दूसरेके किये गये अपराधको भी अपराधकर्ताका न कहकर अपना किया हुआ ( मेरे कर्मोदयके कारणसे ऐसा काम अपने किया है, इसमें आपका नहीं, किन्तु मेरा ही अपराध है) कहते हैं, पक्षा०–मङ्गलद्रव्य होनेसे दर्पणका दर्शन करना श्रेष्ठ माना गया है, वह स्वतः स्वच्छ रहता है तथा उसके सामने जो कोई वस्तु पड़ती है, वह स्वच्छतम दर्पणमें प्रतिबिम्बित होकर ऐसी मालूम पड़ती है कि यह दर्पण ही मलिनसा है, प्रकृतमें हे राजहंस ! तुम स्वच्छ एवं माङ्गलिक होने में दर्शनीय हो, तथा तुमने मेरे प्रति कोई अपराध नहीं किया है, हां, मैंने ही तुम्हें पकड़नेके लिए पीछे पीछे चलकर तुम्हें पीड़ित किया है, अत एव अपराधिनी तो वास्तविकमें मैं हूं और तुम आदर्श (दर्पण ) हो इसी कारण स्वच्छ (निर्दोष, पक्षा०-निर्मल ) आदर्शरूप तुम्हारे सामने आयी हुई अपराधिनी ( मलिनता युक्त ) मैं तुममें प्रतिबिम्बित हो गयी हूं, जिससे शात होता है कि तुममें ही मलिनता हैं / परन्तु वास्तविक विचार करनेपर तुममें नहीं, अपि तु मुझमें मलिनता ( दोषयुक्तत्व ) है ] // 56 / / अनायमप्याचरितं कुमार्या भवान्मम क्षाम्यतु सौम्य ! तावत् / हंसोऽपि देवांशतयाऽभिवन्द्यः श्रीवत्सलक्ष्मेव हि मत्स्यमूर्तिः / / 57|| अनार्यमिति / हे सौम्य ! भवान् कुमार्याः शिशोर्मम सम्बन्धि अनार्यमप्याचरितं स्वदुपद्रवरूपं दुश्चेष्टितं क्षाम्यतु सहतां, हंसोऽपि तिर्यगपीत्यर्थः / त्वमिति शेषः / भवानित्यनुषङ्गे असीति मध्यमपुरुषायोगात् देवांशतया मत्स्यमूर्तिः श्रीवत्सलक्ष्मा विष्णुरिव वन्द्योऽसि // 57 // हे सौम्य ! मुझ कुमारीके अनुचित भी व्यवहारको पहले आप क्षमा करें, ( राजकुमारीको तिर्यञ्च पक्षीसे क्षमा-प्रार्थना करना अनुचित नहीं मानना चाहिये, क्योंकि ) श्रीवत्सचिह्नयुक्त मत्स्यमूर्ति (मत्स्यावतार ) के समान ( ब्रह्माका वाहन होनेसे ) देवांश होने के कारण तिर्यञ्च ( पक्षी ) होकर भी तुम भी वन्दनीय हो / [ आपने पहले ( 3152 ) अपना अपराध क्षमा कराते हुए मुझसे अभीष्ट पूछा है, किन्तु अभी अभीष्टकी बातको अलग रहने दीजिये, आपने अपराध नहीं किया है. किन्तु मैंने ही अपराध किया है, अतः पहले ( अभीष्ट जानने और उसे पूरा करने के पूर्व ) आप मेरा अपराध क्षमा करें / ब्रह्माके वाहन होनेसे आपमें देवांश है, अत एव मुझ राजकुमारीके भी वन्दनीय