________________ 162 नेपषमहाकाव्यम् / हियेय ताभ्यश्चलतीयमद्धापथान' संसर्गगुणेन बद्धा / / 65 / / मध्य इति / किं च, प्रतिवेशिनीनां प्रतिवेश्मनां श्रुतीनां वेदानां ब्रह्ममुखस्थानां श्रुतीनां मध्ये वासवती निवसन्ती इयं नोऽस्माकं मुखे सरस्वती वाक् संसर्ग एव गुणः श्लाघ्यधर्मः तन्तुश्च तेन बद्धा सती ताभ्यः श्रुतिभ्यो हियेवेत्युप्रेक्षा। भदापथात्सत्यमार्गान्न चलति संसर्गजा दोषगुणा भवन्तीति भावः / 'सत्ये त्वद्धाsअसाद्वयमित्यमरः // 65 // हमलोगोंके मुख में वर्तमान सरस्वती ( वाणी ) पड़ोसिन श्रुतियों के बीचमें बसती हैं, अतएव संसर्ग-गुणसे बँधी हुई वह मानो उत (श्रुतियों) से लज्जाके कारण निश्चितरूपसे पथभ्रष्ट नहीं होती है [ ब्रह्माके चारों मुखसे वेद निकले हैं, जो वेद-वचन सर्वथा सत्य एवं सत्पथगामी ही हैं, और हमलोग ब्रह्माके वाहन होनेसे उनके साथ सदा रहते हैं, अतएव श्रुतियां हमलोगोंके मुखमें रहनेवाली सरस्वती अर्थात् हमारे वचनकी पडोसिन है, इस कारण सदा सत्य उन श्रुतियोंसे लज्जा करती हुई हमारी वाणी कभी असत्पथमें नहीं जाती अर्थात् हमलोग कभी असत्य भाषण नहीं करते / लोकमें भी पड़ोसी व्यक्तिसे लज्जा होने के कारण कोई भी व्यक्ति उनके अनुसार ही सदा आचरण करता है ] // 65 // पर्यङ्कतापन्नसरस्व दङ्क लङ्कापुरीमध्यभिलाषि चित्तम् / कुत्रापि चेद्वस्तुनि ते प्रयाति तदप्यवेहि स्वशये शयालु / / 66 / / ततः किमित्यत आह-पर्यङ्केति / कुत्रापि वस्तुनि द्वीपान्तरस्थेऽपीति भावः। अभिलाषि साभिलाषं ते तव चित्तं कर्तृ पर्यङ्कतां वाससकथिकात्वमापन्नः सरस्वान् सागरोऽङ्कश्चिद्रं यस्यास्तामतिदुर्गमामित्यर्थः। तां लङ्कापुरीमपि प्रयाति चेत्तदपि तदुर्गस्थमपि स्वशये स्वहस्ते शयालु स्थितमवेहि / पर्यस्तमपि पर्यङ्कस्थमिव जानीहि // 66 // (अब राजहंस अपने सामर्थ्यातिशयको प्रकट करता हुआ कहता है- ) पर्यङ्क ( पलँग ) बना है मनुद्र-मध्य जिसका ( पलंग के समान समुद्र-मध्यमें सुखसे स्थित ) लङ्कापुरी या अन्य किसी भी वस्तुको भी यदि तुम्हारा मन चाहता है ( अथवा किसी वस्तु को चाहने वाला तुम्हारा चित्त लङ्कामें उस वस्तुमें होनेसे यदि उक्तरूप लकापुरीको भी जाना चाहता है ) तो उसे भी अपने हाथमें स्थित समझो। [ पक्षा०-कुत्रापिपृथ्वी के रक्षक नलमें अभिलाषयुक्त तुम्हारा चित्त उक्तरूप लङ्काको भी जाना चाहता है तो".......... ] || 66 // इतीरिता पत्ररथेन तेन हीणा च दृष्टा चबमाण भैमी। चेतो नलं कामयते मदीयं नान्यत्र कुत्रापि च साभिलाषम // 67 / / इतीति / तेन पत्ररथेन पक्षिणा हंसेन इतीत्थमीरिता उक्ता भैमी हीणा स्वयमेव 1. 'मत्सङ्गगुणेन नद्धा इति 'प्रकाश' सम्मतः पाठः।