________________ द्वितीयः सर्गः। 101 अनयाऽमरकाम्यमानया सह योगः सुलभम्तु न त्वया / धन संवृतयाऽम्बुदागमे कुमुदेनेव निशाकरत्विषा // 46 // अन्रान्यापेक्षा दर्शयितु तस्या दौर्लभ्यमाह-अनयेति / अमरैरिन्द्रादिभिः काम्यमानयाऽभिलष्यमाणया दमयन्त्या सह योगः अम्बुदागमे घनसंवृतया मेघावृतया निशाकरत्विषा सह योगः कुमुदेनेव त्वया न सुलभो दुर्लभ इत्यर्थः। अत्र तत्संयोगदौर्लभ्यस्य अमरकामनापदार्थहेतुकत्वात् काव्यलिङ्गभेदः, तत्सापेक्षा चेयमुपमेति सङ्करः॥ 46 // वर्षाकालमें बादलसे अच्छी तरह आच्छादित हुई चन्द्रकान्तिके साथ कुमुदके समान देवताओंसे भी अभिलषित होती हुई इस दमयन्तींके साथ आपका सम्बन्ध होना सरल नहीं है / [ यहांपर हंसने-वायु आदिके द्वारा बादलके हट जाने पर जिस प्रकार चन्द्रकान्तिके साथ कुमुद का सम्बन्ध अवश्य हो जाता है, उसी प्रकार मेरे उपाय करनेसे दमयन्तीके साथ आपका सम्बन्ध अवश्यमेव हो जायगा-ऐसा संकेत किया है तथा देवसे भी अभिलषित होना कहकर दमयन्तीका देवाङ्गनाओंसे भी अधिक सुन्दर होनेका तथा भविष्य ( स्वयंवरमें होनेवाले देवोंके आगमन आदि ) का भी संकेत किया है ] / / 46 // तदहं विदधे तथा तथा दमयन्त्याः सविधे तव स्तवम् / हृदये निहितस्तया भवानपि नेन्द्रेण यथाऽपनीयते // 47 // अत्र का गतिरित्याह-तदिति / तत्तस्मात्कार्यस्य सप्रतिबन्धत्वादहं दमयन्त्याः सविधे समीपे तथा तथा तव स्तवं स्तोत्रं विदधे विधास्य इत्यर्थः, सामीप्ये वर्तमाने प्रत्ययः / यथा तया हृदये विहितो भवानिन्द्रेणापि नापनीयते नेतुमशक्य इत्यर्थः / यथेन्द्रादिप्रलोभिताऽपि त्वय्येव गाढानुरागा स्यात्तथा करिष्यामीत्यर्थः // 47 // ( अपने वचनका उपसंहार करता हुआ हंस उक्त विषयको ही स्पष्ट करता है-) इस कारण मैं दमयन्तीके समीप आपकी वैसी वैसी प्रशंसा करूँगा, जिससे हृदयमें स्थापित आपको इन्द्र भी पृथक् नहीं कर सकता है ( तो किसी मनुष्य के विषयमें कहना क्या है ?) // 47 // तव सम्मतिमत्र केवलामधिगन्तुं धिगिर्द निवेदितम् / ब्रुवते हि फलेन साधवो न तु कण्ठेन निजोपयोगिताम् // 48 // तर्हि तथैव क्रियतां किं निवेदनेनेत्यत आह-तवेति / अत्रास्मिन् कार्ये केवलामेकांतव सम्मतिमङ्गीकारमधिगन्तुमिदं निवेदितं निवेदनं धिक। तथा हि-साधवो निजोपयोगितां स्वोपकारित्वं फलेन कार्येण ब्रुवते बोधयन्ति, किन्तु कण्ठेन वाग्वत्या न ब्रुवते / सामान्येन विशेषसमर्थनरूपोऽर्थान्तरन्यासः // 48 // केवल आपकी सम्मति पानेके लिए ही इस निवेदनको धिक्कार है, क्योंकि सज्जन लोग अपने उपयोगको स्वयं कण्ठसे नहीं कहते हैं, किन्तु फल (कार्यकी सिद्धि) से ही कहते हैं /