________________ 132 नैषधमहाकाव्यम् / [ अनिर्वचनीय रूपवाले ब्रह्मकी प्राप्ति होनेपर योगियोंके चित्तके समान उस अनिर्वचनीय सुवर्णकाय राजहंसको देखनेपर दमयन्तीकी सखियों को आनन्द हुआ ] // 3 // हंसं तनौ सन्निहितं चरन्तं मुनेमेनोवृत्तिरिव स्विकायाम् / ग्रहीतुकामादरिणा शयेन यत्नादसौ निश्चलतां जगाहे // 4 // हंसमिति / असौ दमयन्ती मुनेर्मनोवृत्तिरिव स्विकायां स्वकीयायां 'प्रत्ययस्थाकात् पूर्वस्ये'तीकारः / तनौ शरीरान्तिके अन्यत्र तदभ्यन्तरे सन्निहितमासन्नमाविर्भूतं च चरन्तं सञ्चरन्तं वर्तमानं च हंसं मरालं परमात्मानं च, 'हंसो विहङ्गभेदे च परमात्मनि मत्सर' इति विश्वः / अदरिणा निर्भीकेण शयेन पाणिना 'दरो स्त्रियां भये श्वभ्रे', 'पञ्चशाखः शयः पाणिरित्यमरः / अन्यत्र आदरिणा आदरवता आशयेन चित्तेन ग्रहीतुकामा साक्षात्कर्त्तकामा च यत्नात् निश्चलतां निश्चलाङ्गत्वं जगाहे जगाम // 4 // ___ इस ( दमयन्ती ) ने सन्निहित ( समीपस्थ, या-श्रेष्ठ = नलके द्वारा भेजे गये ) तथा चलते हुए हंसकी भययुक्त ( या-आदरयुक्त ) हाथ से पकड़ने के लिए यत्नपूर्वक अपने शरीरमें उस प्रकार निश्चलताको प्राप्त किया अर्थात् अपने शरीरको स्थिर किया, जिस प्रकार सन्निहित (सन् = मन्वादिकेद्वारा सम्यक प्रकारसे ध्यान किये गये, या-सत् = सज्जन मन्वादिके लिए अतिशय हितकारक ) तथा अपने शरीरमें विचरते हुए परमात्मा को आदरान्वित आशयसे अर्थात् सादर ग्रहण करनेके लिए मुनिकी मनोवृत्ति (विषयान्तरसे हटकर ) यत्नपूर्वक निश्चलताको प्राप्त होती है। [दमयन्तीने समीपस्थ हंसको पकड़नेके लिए शरीरको निश्चल ( के तुल्य ) बना लिया, किन्तु उसके मनमें तो चञ्चलता बनी ही रही ] // 4 // तामिङ्गितरप्यनुमाय मायामयं न धैर्याद्वियदुत्पपात / तत्पाणिमात्मोपरिपातुकं तु मोघं वितेने प्लुतिलाघवेन / / 5 / / तामिति / अयं हंसस्तां पूर्वोक्तां मायां कपटमिङ्गितैश्चेष्टितैरनुमाय निश्चित्यापि धैर्यात् स्थैर्यमास्थाय ल्यब्लोपे पञ्चमी / वियदाकाशं प्रति नत्पपात नोत्पतितवान् आत्मन उपरि पातुकम्पतयालुं 'लषपते' त्यादिना उकन प्रत्ययः / तस्याः पाणिं तु प्लुतिलाघवेन उत्पतनकौशलेन मोघं वितेने बिफलयत्नम् अकरोत् आशाञ्च जनयति न तु पाणी लगतीत्यर्थः // 5 // ___ यह हंस दमयन्तीकी चेष्टाओंसे उसकी मायाको जानकर भी आकाशमें नहीं उड़ा, किन्तु अपने ऊपर आते हुए उसके हाथको थोड़ा उछलनेसे निष्फल कर दिया [दमयन्तीका हाथ जब उसके ऊपर पकड़नेके लिए अधिक निकट होता था, तभी वह हंस थोड़ा उछलकर दूर हट जाता था, जिससे वह उसे पकड़ नहीं पाती थी] // 5 // व्यर्थीकृतं पत्ररथेन तेन तथाऽवसाय व्यवसायमस्याः। परस्परामर्पितहस्ततालं तत्कालमालोभिरहस्यतालम् // 6 //