________________ 138 नैषधमहाकाव्यम् / नस्तत्सामान्यलक्षणात् प्रायेण आहारपरिणतिविशेषपूर्विकाः प्राणिनां कायकान्तय इति भावः / सामान्येन विशेषसमर्थनरूपोऽर्थान्तरन्यासः // 17 // ( हंस अब अपने स्वर्ण-शरीर होनेका कारण कहता है-) आकाशगङ्गाकी स्वर्ण कमलिनीके नालके अग्रभाग ( कमल तथा कमलदण्ड-बिस ) को खानेवाले हम लोग अन्न ( खाद्य पदार्थ ) के अनुरूप शरीरके रूपकी समृद्धि अर्थात् स्वर्ण शरीर को प्राप्त किये हैं, क्योंकि कार्य कारणके गुणोंको प्राप्त करता है / [ सुवर्णकमल तथा सुवर्णबिस भोजन करनेसे हम लोगोंका शरीर भी सुवर्णमय है / 'हम ऐसा बहुवचन कहकर बहुत-से हंसों का सुवर्णमय शरीर होना सूचित करता है ] // 17 / / / धातुर्नियोगादिह नैषधीयं लीलासरस्से वितुमागतेषु / है मेषु हंसेष्वहमेक एव भ्रमामि भूलोकविलोकनोत्कः // 18 // अथात्मनः आमालोकसञ्चरणे कारणमाह-धातुरिति / धातुब्रह्मणो नियोगादादेशादिह भूलोके नैषधीयं नलीयं लीलासरः सेवितुं क्रीडासरसि विहर्तुमित्यर्थः / आगतेषु हैमेषु हेमविकारेषु / विकारार्थेऽण प्रत्ययः / 'नस्तद्धित' इति टिलोपः। हंसेषु मध्ये अहमेक एव भूलोकविलोकने उत्कः उत्सुकः सन् 'दुर्मना विमना अन्तर्मनाः स्यादुत्क उन्मना' इत्यमरः / उच्छब्दात्कन् प्रत्ययान्तो निपातः भ्रमामि पर्यटामि // 18 // ( वह ब्रह्माका वाहन होनेपर मर्त्यलोकमें आनेका कारण बतलाते हुए नलका प्रसङ्ग भी उपस्थित करता है- ) ब्रह्माकी आज्ञासे यहां ( मर्त्यलोकमें ) नलके क्रीडासरका सेवन करने ( नलके क्रीडातडागमें विचरने ) के लिए आये हुए सुवर्णमय हंसों में भूलोकको देखनेके लिए उत्कण्ठित अकेला मैं घूम रहा हूँ। ( इससे हंसने नलके क्रीडासरमें बहुत-से सुवर्णमय हंसोंका होना और ब्रह्मा की आज्ञासे वहां निवास करना कहकर उसका अधिक महत्त्व सूचित किया है ] // 18 // विधेः कदाचिद् भ्रमणाविलासे श्रमातुरेभ्यस्स्वमहत्तरेभ्यः / स्कन्धस्य विश्रान्तिमदां तदादि श्राम्यामि नाविश्रमविश्वगोऽपि / / 1 / / अनवरतभ्रमणेऽपि श्रमजये कारणमाह-विधेरिति / कदाचिद्विधेः ब्रह्मणो भ्रमणीविलासे भुवनभ्रमणविनोदे श्रमातुरेभ्यः अवसन्नेभ्यः स्वमहत्तरेभ्यः स्वकुलवृ. द्धेभ्यः स्कन्धस्यांसस्य, 'स्कन्धो भुजशिरोऽसोऽस्त्री'त्यमरः / विश्रान्तिमदां प्रादाम् / स्वयमेक एवाहमित्यर्थः / ददातेलुंङि 'गातिस्थे'त्यादिना सिचो लुक / तदादि तत्प्र. भृति अविश्रममनवरतं 'नोदात्तोपदेश'त्यादिना श्रमेजि वृद्धिप्रतिषेधः, विश्वगो विश्वं गच्छन्नपि 'अन्यत्रापि दृश्यत' इति गमेर्डप्रत्ययः / न श्राम्यामि न खिद्य॥१९॥ ( 'जब तुम भूलोकको देखनेके लिए उत्कण्ठित होकर घूमते हो तो अधिक थके हुए तुम्हारा पकड़ा जाना सम्भव हैं। इस दमयन्तीके मनोगत शङ्काका राजहंस खण्डन करता है-(किसी समय ब्रह्माके भ्रमण-विलासमें थकनेसे दुःखी अपनेसे बड़े ( हंसों) के