________________ 142 नैषधमहाकाव्यम्। हैं, यह आश्चर्य है / [ राजा नल आश्रममें रहनेवाले श्रोत्रियों ( जन्म, संस्कार तथा विद्यासे युक्त ब्राह्मणों ) को धन देकर जिस प्रकार यज्ञके घृतको विबुधों ( देवों ) के समूहके अधीन करते ( उन्हें देते हैं, उसी प्रकार राज्यको भो विबुधों (विशिष्ट विद्वानों) के समूहके अधीन करके प्रथम अर्थात् यज्ञघृतको शेष ( यज्ञ-कर्मसे बचा हुआ ) भोजन करते हैं तथा अन्तिम ( राज्य ) को अशेष ( सम्पूर्ण ) भोग करते हैं, यह आश्चर्य है, क्योंकि 'जो वस्तु पहले खायी जाती है, वह सम्पूर्ण तथा जो बाद में खायी जाती है, उसे असम्पूर्ण खाया जाता है' ऐसा साधारण लौकिक नियम है, किन्तु ये राजा नल पूर्व ( यज्ञ-घृत ) को शेष. तथा अन्तिम ( राज्य ) को सम्पूर्ण भोजन करते ( पक्षा०-भोगते ) हैं अतः आश्चर्य है / अथ च-सर्वसाधारणके भोज्य होनेसे मार्गमें जो राज्य, तत्सामान्यतः राज्यका भोग करनेवाले ये नल राज्यको अशेष ( सम्पूर्ण ) भोग करते हैं यह आश्चर्य है / विधिवत् हवनकर आश्रित श्रोत्रियोंको धन देनेवाले तथा समुद्रावधि सम्पूर्ण राज्यको भोगनेवाले राजा नल हैं ] // 24 // दारिद्रयदारिद्रविणोधवषैरमोघमेघव्रतमथिसाथ। सन्तुष्टमिष्टानि तमिष्टदेवं नाथन्ति के नाम न लोकनाथम् // 25 // दारिद्रयेति / दारिद्रयं दारयति / निवर्तयतीति तस्य दारिद्रयदारिणो द्रविणौघस्य धनराशेरर्थिसाथै विषये अमोघमेघव्रतं वर्षुकत्वलक्षणं यस्य तं सन्तुष्टं दानहृष्टमिष्टदेवं यज्ञाराधितसुरलोकनाथं तं नलं के नाम इष्टानि न नाथन्ति ? न याचन्ते सर्वेऽपि नाथन्त्येवेत्यर्थः / नाथतेर्याच्जार्थस्य दुहादित्वाद् द्विकर्मकत्वम्॥२५॥ दरिद्रताको दूर करनेवाले धनराशिकी वर्षाओंसे याचक-समूहमें सफल व्रतवाले, ( दान-कर्मसे ) सन्तुष्ट, देव-यज्ञ करनेवाले (या-देव हैं अभीष्ट देव जिसके ऐसे, या( याचकोंके लिए ) ( अभीष्ट देवरूप ) उस राजा ( नल ) से कौन लोग अभीष्ट ( आदि) की प्रार्थना नहीं करते हैं ? अर्थात् राजा नलसे सभी लोग अभिलषित धनादिको चाहते हैं / [ जिस प्रकार याचना करनेपर मेघ वर्षासे धान्योत्पादनके द्वारा सभी लोगोंकी दरिद्रताको दूर करता है, उसी प्रकार राजा नल भी अधिक धन देकर सभी याचकोंकी दरिद्रताको दूर करते हैं, अतएव मेघके समान दरिद्रताको दूर करनेसे नलका व्रत (नियम) सफल है ] // 22 // अस्मत्किल श्रोत्रसुधां विधाथ रम्भा चिरं भामतुला नलस्य / तत्रानुरक्ता तमनाप्य भेजे तन्नामगन्धान्नलकूबरं सा // 26 // अस्मदिति / सा प्रसिद्धा रम्भा नलस्यातुलामनुपमां भां सौन्दर्यमस्मत् मत्तः श्रोत्रसुधां विधाय कणे अमृतं कृत्वा रसादाकयेत्यर्थः। तत्र तस्मिन्नले अनुरक्ता सती तं नलमनाप्य अप्राप्य, आपूर्वादाप्नोतेः क्त्वो ल्यबादेशः नमसमासः / अन्यथा त्वसमासे ल्यवादेशो न स्यात् तन्नामगन्धात्तस्य नलस्य नामाक्षरसंस्पर्शादे॒तोर्नलकूबरं कुबेरात्मजं भेजे किल / तादृक्तस्य सौन्दर्यमिति भावः // 26 //