________________ तृतीयः सर्गः। 543 वह ( सुप्रसिद्ध स्वर्गीय ) रम्भा नामकी अप्सरा हमलोगोंसे नलकी अनुपम शोभाको बहुत देरतक सुनकर उनमें अनुरक्त हुई, और उनको नहीं पाकर उनके नामके कुछ भाग होनेसे नलकूवरकी सेवा करने लगी ( नलकूबरको पतिरूपमें प्राप्त कर उनकी सेवामें लग गयी) ! [ लोकमें भी अभीष्ट वस्तुको पूर्णतः नहीं प्राप्त होने पर उसके सदृश वस्तुको प्राप्त कर उसीकी सेवा करते लोगोंको देखा जाता है ] // 26 // स्वर्लोकमस्माभिारतः प्रयातैः केलीषु तद्गगानगुणानिपीय / हा हेति गायन् यदशोचि तेन नाम्नैव हाहा हरिगायनोऽभूत // 27 // स्वलॊकमिति / केलीषु विनोदगोष्टीषु तस्य नलस्य कर्तुर्गाने गुणाधिपीय इतः अस्माल्लोकात् स्वलोकं प्रयातरस्माभिर्हरिगायनः इन्द्रगायको गन्धर्वः 'प्युट चेति गायतेः शिल्पिनि ण्युट्प्रत्ययः / गायन् यद्यस्मात् हाहेत्यशोचि, ततस्तेनव कारणेन नाम्ना हाहा अभूत् , आलापाक्षरानुकारादिति भावः / 'हाहाहूहूश्चैवमाद्या गन्ध स्त्रिदिवौकसामि'त्यमरः / 'आलापाक्षरानुकारनिमित्तोऽयमाकारान्तः पुंसि चेति केचित् / 'हाहा खेदे हुहु हर्षे गन्धर्वेऽमू अनव्यय' इति विश्वः / अव्ययमेवेति भोजः। अत्र शोकनिमित्तासम्बन्धेऽपि सम्बन्धादतिशयोक्तिः। तथा च गन्धर्वातिशायि गानमस्येति वस्तु व्यज्यते // 27 // क्रीडाके समयमें उस ( नल ) के गानेके गुणों को अच्छी तरह पीकर अर्थात् सुनकर यहां ( मर्त्यलोक ) से स्वर्गको गये हुए हम लोगोंने ( स्वर्गमें गान करते हुए गन्धर्वको) जो 'हा, हा', सोचा ( राजा नलने गानेकी तुलनामें तुम्हारा गाना अत्यन्त तुच्छ है, इस अभिप्रायसे जो 'हा' हा ? कहा) तो उस इन्द्रके गन्धर्वका नाम ही 'हा हा' पड़ गया। राजा नल गान विद्यामें भी 'हा हा' नामक स्वर्गीय गन्धर्व से अधिक निपुण है ] // 27 / / शृण्वन् सदारस्तदुदारभावं हृष्यन्मुहुर्लोम पुलोमजायाः / पुण्येन नालोकत 'नाकपालः प्रमोदबाष्पावृतनेत्रमालः // 28 // शृण्वन्निति / नाकपाल इन्द्रः सदारः सवधूकः तस्य तलस्य उदारभावमौदार्य शृण्वन्नत एव प्रमोदबाप्पैरानन्दाभिरावृतनेत्रमालस्तिरोहितदृष्टिब्रजः सन् पुलोमजायाः शच्याः मुहुह प्यन्नलानुरागादुल्लसल्लोमरोमाञ्चं पुण्येन शच्या भाग्येन नालोकत नापश्यत् अन्यथा मानसव्यभिचारापराधाद् दण्ड्यैवेत्यर्थः // 28 // ____ स्त्री ( इन्द्राणी) के साथ नलकी उदारताको सुनते हुए (हर्षाश्रुसे व्याप्त नेत्र-समूह वाले ) इन्द्रने इन्द्राणीके बार-बार पुलकित होते हुए रोमको ( नलमें अनुराग होनेसे उत्पन्न इन्द्राणी के रोमाञ्चको, इन्द्राणीके ) पुण्य (भाग्यातिशय ) से नहीं देखा [ अन्यथा यदि इन्द्राणीके रोमाञ्चको इन्द्र देख लेते तो नलमें अनुरक्त होनेसे इसे शृङ्गारसम्बन्धी रोमानरूप सात्त्विकभाव हो रहा है, अत एव यह पतिव्रता नहीं है, ऐसा समझकर उसका त्यागकर 1. लोकपाल' इति 'प्रकाश' सम्मतः पाठः। 10 नै०