________________ तृतीयः सर्गः यदि सज्जनों के विभाजनका विचार किया जाय तो वह ( नल ) प्रथम व्यक्ति होगा, जो अपने पराक्रमके विलासोंसे बहुत-से शत्रुस्थानोंको वशमें करनेके लिए समर्थ है / ( पक्षा०-यदि ( 'सुप्-तिङ' रूप ) साधु विभक्तिका विचार किया जाय तो 'प्रथमा' नाम से प्रसिद्ध वह व्यक्ति होगा, जो 'सु-और-जस्' ( एकवचन, द्विवचन तथा बहुवचन ) के विलासोंसे बहुत-में 'नाम' अर्थात् प्रातिपदिक पदोंको सिद्ध करनेके लिए समर्थ है / 'प्रातिपदिकालिङ्गपरिमाणवचनमात्रे प्रथमा' ( पा० सू० 2 / 3 / 46 ) के नियमानुसार सब विभक्तियोंमें-से किसी विभक्ति-विशेषकी प्राप्ति नहीं रहनेपर 'प्रातिपदिकार्थ' में प्रथमा विभक्तिका प्रयोग सामान्यतः होता है, अत एव वहं प्रथमा विभक्ति हो 'सु-औ-जम् रूप प्रत्ययों के विसर्गलोष, वृद्धिः दीर्घ आदि कार्योंके विलाससे 'प्रातिपदिक पदको सिद्ध करने में समर्थ होती हैं / अथ च-यादे एकवचन आदि विभक्तियोंमें साधु विभक्तियों का विचार किया जाय तो 'सु' औ, 'जम्' के बोचमें प्रथमा (पहली) विभक्ति अर्थात् 'सु' विभक्ति होगी, जो अपने विसर्ग-लोपादिरूप बलके विलासोंसे प्रातिपदिक पदको सिद्ध करनेके लिए बहुत समर्थ है / 'अपदं न प्रयुजीत', 'एकवचनमुत्सर्गतः करिष्यते' अर्थात् अपद ( साधुत्व-हीन ) शब्दका प्रयोग नहीं करना चाहिये, एकवचनका प्रयोग स्वभावतः (किसी विभक्ति-विशेषकी आकांक्षा नहीं रहने पर भी स्वतः एव ) "किया जाता है इस सिद्धान्तके अनुसार 'सु, औ, जस्' विभक्तियों में भी पहली 'सु' विभक्ति सब प्रातिपदिक पदको सिद्ध करने के लिए सर्वथा समर्थ है ] // 23 // राजा स यज्वा विबुधवजत्रा कृत्वाऽध्वराज्योपमयेव राज्यम् / भुङ्क्ते श्रितश्रोत्रियसात्कृतश्रीः पूर्व त्वहो शेषमशेषमन्त्यम् / / 24 / / राजेति / 'यज्वा तु विधिनेष्टवान्', 'सुयजोर्ध्वनिप', श्रिताः आश्रिताः ये श्रो. त्रियाः छान्दसा अधीतवेदा इत्यर्थः / श्रोत्रियच्छान्दसौ समावि'त्यमरः। 'श्रोत्रियश्छन्दोऽधीत' इनि निपातः / तत्सात्कृता दानेन तदधीना कृता श्रीः सम्पद्येन सः राजा नलः अध्वरेषु यदाज्यन्तदुपमया तत्सादृश्येनैव तद्वदेवेत्यर्थः। राज्यं विबुधा देवा विद्वांसश्च तद्वजत्रा दानेन तत्सङ्घाधीनं कृत्वा 'देये त्रा चेति चकारादितरत्र सातिप्रत्ययश्च, 'तद्धितश्वासर्वविभक्तिरित्यव्ययत्वम्, पूर्व पूर्वनिर्दिष्टमध्वराज्यं शेषं हुतशेषं भुङ्क्ते अन्त्यं पश्चान्निर्दिष्टं राज्यन्त्वशेषं कृत्स्नमखण्डं भुङ्क्ते, अहो उपभुतादन्यः शेषः पूर्वस्याशेषस्य तथात्वम्, अन्त्यस्य अशेषत्वं कथं विरोधादित्याश्चर्यम्, अत एव विरोधाभासोऽलङ्कारः, अखण्डमिति परिहारः // 24 // ___आश्रयस्थ श्रोत्रियों ( वेदपाठियों ) के अधीन करनेवाले अर्थात् वेदपाठियोंकी धनदान करनेवाले तथा सविध यज्ञकर्ता वे ( राजा नल ) यशके घीके दृष्टान्तसे ही राज्यको विद्वत्समूह ( पक्षा०-देवसमूह ) के अधीन करके पहले ( यज्ञशेष घृत ) को शेष ( बचा हुआ ) तथा अन्तिम ( राज्य ) को अशेष ( सम्पूर्ण ) भोग करते (खाते, पक्षा०-भोगते )