________________ तृतीयः सर्गः / 145 यह गूढाभिप्राय मन में रखकर धर्मके कपटसे वाणी को अच्छी तरह ब्रह्मा रोकते हैं अथोत् मौन रहते हैं / पक्षा० -स्त्रीको रोकते हैं / या-...."छलसे जो वाणीको रोकते हैं, वह व्यर्थ है ) किन्तु वेदाध्ययनसे जड ( वाणीके कपटको नहीं समझनेवाले ) वे ( ब्रह्मा ) उस ( नल ) के कण्ठका आलिङ्गनकर रस ( शृङ्गारादि ) से सन्तुष्ट वक्रा ( कुटिला, पक्षा०-वक्रोक्तिरूपा ) उस वाणीको नहीं जानते हैं। [ दूसरा भीः मूर्ख पुरुष अन्यपुरुषासक्ता कुटिला स्त्रीको नहीं समझता है। नल ही वक्रोक्तिपूर्ण वाणीको जानते है, दूसरा कोई नहीं] // 30 // श्रियस्तदालिङ्गनभून भूता व्रतक्षतिः काऽपि पतिव्रतायाः / समस्तभूतात्मतया न भूतं तद्भतुरीर्ध्याकलुषाऽणुनाऽपि // 31 // श्रिय इति / पतिव्रतायाः श्रियः श्रीदेव्याः तगर्तुर्विष्णोः समस्तभूतात्मतय, सर्वभूतात्मकत्वेन नलस्यापि विष्णुरूपत्वेनेत्यर्थः। तदालिङ्गनभूनलाश्लेषभवा कापि व्रतक्षतिः पातिव्रतभङ्गो न भूता नाभूत् / अतएव तद्भर्तुर्विष्णोश्च ईय॑या नलालिङ्गनभुबा अक्षमया यत्कलुषं कालुप्यं मनःक्षोभः दुःखादित्वेन अस्य धर्मधर्मिवचनत्वादत इव क्षीरस्वामी 'शस्तं चाथ त्रिषु द्रव्ये पापं पुण्यं सुखादि चे'त्यत्र आदिशब्दाच्छ्रे याकलुषशिवभद्रादय इति उभगवचनेषु संजग्राह / तस्याणुना लेशेनापि न भूतं नाभावि / नपुंसके भावे क्तः। अत्र शच्यादिचित्तचाञ्चल्योक्तेर्नलसौन्दर्य तात्पर्यान्नानौचित्यदोषः // 31 // (विष्णुको ) समस्त भूतों का स्वरूप होने से ( नलमें भी विष्णु-स्वरूप रहने के कारण ) पतिव्रता लक्ष्मी ( शरीर-शोभा या-राज्यलक्ष्मी ) की उस ( नल ) के आलिङ्गन करनेसे थोड़ी भी व्रतहानि ( पातिव्रत्य में न्यूनता) नहीं हुई, तथा उस ( लक्ष्मी) के पति (विष्णुभगवान् ) को भी ( अपनी प्रिया लक्ष्मीको नलका आलिङ्गन करनेपर ) असूयानिमित्तक पापलेश भी नहीं हुआ [ समस्तभूतात्मा विष्णु भगवान्के स्वरूप नलका आलिङ्गन करने पर लक्ष्मीका पातिव्रत्य धर्म भङ्ग नहीं हुआ और उनके पति विष्णु भगवान् भी लक्ष्मीपर लेशमात्र रुष्ट भी नहीं हुए, अन्यथा यदि नल परपुरुष होते तो लक्ष्मीका पतिव्रत धर्म नष्ट हो जाता तथा परपुरुष का आलिङ्गन करनेवाली लक्ष्मीपर उनके पति विष्णुभगवान् भी बहुत रुष्ट होते / नलके सम्पूर्ण शरीर में शोभा थी ] // 31 // धिक तं विधेः पाणियजातलज्जं निमोति यः पणि पूणामन्दुम / / मन्ये स विज्ञः स्मृततन्मुखाः कृतार्धमौज्झद्भवमूनिः यस्तम् ||32|| धिगति / तमजातलज्जं निस्पं विधेः पाणिं धिक् यः पाणिः स्मृततन्मुखश्रीरपि पर्वणि जातावेकवचनं पर्वस्वित्यर्थः / पूर्णमिन्दुं निर्माति अद्यापीति भावः / स विज्ञः अभिज्ञ इति मन्ये यः पाणिः स्मृततन्मुखश्रीः सन् तमिन्टुं कृत. अर्द्ध एकदेशो यस्य तं कृतार्द्धमर्द्धनिर्मितमेव भवमूर्ध्नि हरशिरसि औज्झत्। अतिसौन्दर्ययुक्तमस्यास्यमिति भावः॥३२॥