________________ द्वितीयः सर्गः 127 हिया वृतम् अवाङ्मुखत्वं यैस्तैरधोमुखैः अतएव दिवि उत्तानगाया ऊर्ध्वमुखाया इत्यर्थः / कस्याः सुरसुरभेः देवगन्या आस्यदेशं गताग्रैरंशुभिरेव दभैर्यस्या नगर्याः सम्बन्धि गोग्रासप्रदानव्रतसुकृतमविश्रान्तं नोज्जम्भते स्म / किन्तु सर्वस्य अपि ग्रासदानाद्यत्तत्सुकृतमेवोज्जम्भितमित्यर्थः / अत्युत्तमालङ्कारोऽयमिति केचित् / अंशुदर्भाणां ब्रह्माण्डाघाताद्यसम्बन्धेऽपि सम्बन्धोत्तरतिशयोक्तिभेदः / स्त्रग्धरावृत्तं 'नम्नैर्यानां त्रयेण त्रिमुनियतियुता स्रग्धरा कीर्तितेयमिति लक्षणात् // 105 // दमयन्तीके क्रीडापर्वतपर नरकत ( पन्ना ) मणियोंके अग्रभागसे उत्पन्न (होकर ऊपर की ओर जाते हुए, किन्तु ऊपर में स्थित ) ब्रह्माण्डके आघात (टक्कर) में ऊपर जानेके मद के भग्न होनेसे लज्जासे नम्रमुख हुए. ( अतएव ) आकाशमें उत्तानगामिनी किस कामधेनुके मुखमें प्रविष्ट किरणरूप कुश तुण जिस (कुण्डिनपुरी) के गोग्रास देनेके शाश्वत पुण्यको नहीं पाता है ? / [ मरकत मणिके बने-दमयन्तीके अत्युन्नत क्रीडापर्वतकी चोटीसे कुशाओंके समान हरे रङ्गकी किरण ऊपर की ओर निकलती हैं, किन्तु ब्रह्माण्डके साथ टकराकर ऊपर नहीं जा सकनेके कारण पुनः नीचे की ओर लौटकर ऊपर आकाशमें उत्तान चलती हुई कामधेनु गायोंके मुख में प्रविष्ट होकर ऐसा प्रतीत होती है कि पुण्यलाभार्थ गायोंको हरे कुशाओंका निरन्तर गोग्रास दिया जाता हो ] // 105 / / विधुकरपरिरम्भादात्तनिष्यन्दपूर्णः शशिदृषदुपक्लुप्तैरालवालस्तरूणाम् / विफलितजलसेकप्रक्रियागौरवेण व्यरचि स हतचित्तस्तत्र भैमीवनेन / / 106 / / विध्विति / तत्र तस्यां नगर्या शशिहषदुपक्लप्तैश्चन्द्रकान्तशिलाबद्धैः अत एव विधुकरपरिरम्भात् चन्द्रकिरणसम्पर्कात् हेतोः आत्तनिष्यन्दैः जलप्रस्रवणैरेव पूर्णैस्तरूणामालवालविफलितं व्यर्थीकृतं जलसेकस्य प्रक्रियायां प्रकारे गौरवं भारो यस्य तेन भैमीवनेन स हंसो हृतचित्तो व्यरचि / कर्मणि लुङ / अत्रालवालानां चन्द्रकान्तनिष्यन्दासम्बन्धेऽपि सम्बन्धोक्तेरतिशयोक्तिभेदः / एतदारभ्य चतुःश्लोकपर्यन्तं मालिनीवृत्तं-'न नमयययुतेयं मालिनी भोगिलोकरिति लक्षणात् // 106 // वहांपर चन्द्रकान्तमणिके बने हुए. (अतएव) चन्द्रकिरणोंके संसर्गसे पसीजनेसे भरे हुए तथा वृक्षोंके थालाओंके द्वारा पानीके सींचनेके गौरव ( परिश्रम ) को निष्प्रयोजन करनेवाले दमयन्तीके कीड़ोद्यानने उस हंसके चित्तको आकृष्ट कर लिया। [ चन्द्रकान्त मणियोंसे बने वृक्षोंके थाले चन्द्रकिरण स्पर्श होनेसे स्वयं जलपूर्ण होकर पानीके द्वारा सींचने को व्यर्थ कर देते थे, ऐसे दमयन्तीके क्रीडोद्यानको देखकर हंसका चित्त आकृष्ट हो गया ] // 106 // अथ कनकपतत्रस्तत्र तो राजपुत्रीं सदसि सदृशभासां विस्फुरन्तीं सखीनाम् / 6 0