________________ द्वितीयः सर्गः 103 प्रतिपादनं सा त्वमेवोदाहरणं यस्याः सा तथोक्ता आकृतिसौशील्ययोः त्वय्येव सामानाधिकरण्यदर्शनादित्यर्थः / अत एवोत्तरवाक्यार्थस्य पूर्ववाक्यार्थहेतुकत्वात् काव्यलिङ्गमलङ्कारः 'हेतोर्वाक्यार्थहेतुत्वे काव्यलिङ्गमुदाहृतमिति लक्षणात् // 51 // तुम्हारे ( सुवर्णमय ) आकारकी समता किसीके साथ नहीं की जा सकती तथा तुम्हारी सुशीलताका वर्णन नहीं किया जा सकता, 'आकृतिमें गुण रहते हैं। ऐसे सामुद्रिक शास्त्रके सारभूत नियमके तुम्ही उदाहरण हो [ अर्थात्-तुम्हें देखकर ही सामुद्रिक शास्त्रने 'यत्राकृतिस्तत्र गुणा वसन्ति' ऐसा नियम किया है। तुम्हारा जैसा सुन्दररूप है, वैसा ही सुन्दर स्वभाव भी है ] // 51 / / / न सुवर्णमयी तनुः परं ननु किं वागपि तावकी तथा / न परं पथि पक्षपातिताऽनवलम्बे किमु माहऽशेपि सा // 52 / / न सुवर्णेति / ननु हे हंस ! तवेयं तावकी 'युप्मदस्मदोरन्यतरस्यां खञ् चेति चकारादण प्रत्यये डीप 'तवकममकावेकवचने' इति तवकादेशः / तनुः परं मूर्तिरेव सुवर्णमयी हिरण्मयी न किन्तु वागपि तथा सुवर्णमयी शोभनाक्षरमयीत्यर्थः / अनवलम्बे निरवलम्बे पथि परमाकाश एव पक्षपातिता पक्षपातित्वं किमु किं वेत्यर्थः / निपातानामनेकार्थत्वात् / अनवलम्बे निराधारे मादृशेऽपि सा पक्षपातिता स्नेहवत्तेत्यर्थः। अत्र तनुवाचोः प्रकृताप्रकृतयोः सुवर्णमयीति शब्दश्लेषः एवं पथि मादृशेऽपि पक्षपातितेति सजातीयसंसृष्टिः, तया चोपमा व्यज्यते // 52 // केवल तुम्हारा शरीर ही सुवर्णमय ( सोनेका बना हुआ ) नहीं है, किन्तु वचन भी सुवर्णमय (सुन्दर अक्षरोंसे बना हुआ ) है तथा तुम केवल अवलम्बन-रहित मार्ग ( आकाश ) में ही पक्षपाती ( उड़ते समय पलों को गिरानेवाले ) नहीं हो, किन्तु निरवलम्ब मुझमें भी पक्षपाती ( पक्षपात-तरफदारी करनेवाले ) हो / / 52 / / भृशतापभृता मया भवान्मरुदासादि तुषारसारवान् / धनिनामितरः सतां पुनर्गुणवत्सन्निधिरेव सन्निधिः / / 53 / / भृशेति / भृशतापभृता अतिसन्तापभाजा मया भवांस्तुषारैः शीकरैः सारवानुत्कृष्टो मरुत् मारुतः सन् आसादि सन्तापहरत्वादिति भावः / तथा हि-धनिनां धनिकानां कुबेरादीनामितरः पद्मशङ्खादिः संश्चासौ निधिश्चेति सन्निधिः, सतां विदुषां पुनः गुणवतां सन्निधिः सान्निध्यमेव सन्निधिः महानिधिः / सन्तापहारित्वात् त्वमेव शिशिरमारुतः, अन्यतस्तु दहन एवेति भावः / दृष्टान्तालङ्कारः लक्षणं तूक्तम् // 53 // ' (दमयन्ती-विरहमें ) अत्यन्त ताप ( कामज्वर ) से युक्त मैंने हिम ( वर्फ) के सार भागयुक्त वायुरूप तुमको पा लिया है, क्योंकि धनियोंका दूसरा ही ( रुपया-पैसा आदि द्रव्यरूप ) श्रेष्ठ धन है, किन्तु सज्जनोंका तो गुणवानोंका संसर्ग ही श्रेष्ठ धन है। [ द्रव्यादिको पानेसे धनियोंके समान गुणवानोंके संसर्गको पानेसे सज्जनोंको हर्ष होता है ] // 53 //