________________ द्वितीयः सर्गः। 121 विधुदीधितिजेन यत्पथं पयसा नैषधशीलशीतलम् / / शशिकान्तमयं तपागमे कलितीव्रस्त पति स्म नातपः // 14 // विध्विति / विधुदीधितिजेन इन्दुकरसम्पर्कजन्येन पयसा सलिलेन नैषधस्य नलस्य शीलं वृत्तं स्वभावो वा तद्वच्छीतलं शशिकान्तमयं यत्पथं यस्या नगर्याः पन्थानं तपागमे ग्रीष्मप्रवेक्षे कलितीव्रः कलिकालवच्चण्डः आतपः न तपति स्म / नलकथायाः कलिनाशकत्वादिति भावः / अत्र नगरपथस्य इन्दूपलपयःसम्बन्धोक्रतिशयोक्तिः, तत्सापेक्षत्वादुपमयोः सङ्करः // 94 // चन्द्रकान्त मणियों से बने हुए ( अत एव ) चन्द्र-किरणों ( के सम्पर्क ) से उत्पन्न पानीसे नलके शीलके समान शीतल जिस ( कुण्डिनपुरी) के मार्ग को कलियुगके समान तीक्ष्ण धूपने गर्म नहीं किया / [ दिनमें गर्म हुआ भी जिस नगरी का मार्ग रात्रिमें चन्द्रकान्तमणियोंके बने हुए होनेसे चन्द्रकिरणोंके सम्पर्कके कारण बहे हुए जल से ठण्डा हो जाता था तथा 'नलकथा कलि 'दोषका नाशक है' यह भी ध्वनित होता है ] / / 94 / / परिखावलयच्छलेन या न परेषां ग्रहणस्य गोचरा / फणिभाषितभाष्यफक्किका विषमा कुण्डलनामवापिता / / 65 // परिखेति / परिखावलयच्छलेन परिखावेष्टनव्याजेन कुण्डलनांमण्डलाकाररेखामवापिता परेषां शत्रूणां ग्रहणस्याक्रमणस्य अन्यत्र अन्येषां ग्रहणस्य ज्ञानस्य न गोचरा अविषया या नगरी विषमा दुर्बोधा फणिभाषितभाष्यफक्किका पतञ्जलिप्रणीतमहाभाष्यस्थकुण्डलिग्रन्थः तद्वदिति शेषः। अत्र नगर्याः कुण्डलिग्रन्थत्वेनोस्प्रेक्षा // सा च परिखावलयच्छलेनेति अपह्नवोत्थापितत्वात् सापह्नवा व्यञ्जकाप्रयोगाद् गम्या // 95 // खाईके घेरेके कपटसे कुण्डलित ( घिरी हुई, अत एव ) शेषनाग ( के अंशावतार पतअलि ) से कथित 'महाभाष्य' ग्रन्थकी फक्किका के समान विषम (अशेय, पक्षा०-अप्रवेश्य ) जिस ( कुण्डिनपुरी ) को दूसरोंने नहीं जाना ( पक्षा०-वशमें नहीं किया ) / [ शेषनागके अवतार श्री पतञ्जलि भगवान् से रचे भाष्य में कुछ ऐसे स्थल हैं; जिनके वास्तविक आशयका ज्ञान नहीं होनेसे उन्हें वररुचिने घेरकर उनका दुज्ञेयत्व सूचित कर दिया है, इसी प्रकार इस कुण्डिननगरीके चारों ओर ऐसी खाई है कि इसे कोई भी शत्रु अपने वश में नहीं कर सकता अत एव यह नगरी उस भाष्य की फक्किकाके समान दूसरोंसे अग्राह्य है ] // 95 // मुखपाणपदाक्षिण पङ्कजं रचिताऽङ्गेष्वपरेषु चम्पकैः / स्वयमादित यत्र भीमजा स्मरपूजाकुसुमस्रजः श्रियम् / / 66 / / 1. तदुक्तम् - 'कर्कोटकस्य नागस्य दमयन्त्या नलस्य च / ऋतुपर्णस्य राजर्षेः कीर्तनं कलिनाशनम् // ' इति /