________________ नैषधमहाकाव्यम् / क्रीडावापीके तौरपर तरों के बबने (शरद करने ) से, पिकसमूह ( या-पिकों तथा भ्रमरों ) के गानेसे तथा मयूरों के नृत्य-चातुर्यसे वनमें भी उस नरूको तौर्यत्रिक (क्रमश:वादन, गायन तथा नर्तन) ने सेवा की, क्योंकि माग्यवान् मनुष्य कहाँपर मोगको नहीं पाता ? अर्थात माग्यवान् मनुष्यको भोग-विलासके साधन सर्वत्र मिल जाते हैं। यद्यपि विरही होनेसे कामपीडित नलके लिए वे कामोद्दीपक वादनादि सुखकर नहीं थे, तथापि विरक्त व्यक्तिके सामने स्थित तरुणी तरुणी ही मानी जाती है, अतएव विरही भी नलके लिए प्रतिकूल होनेपर भी वे वादनादि मोग-साधन ही माने जायेंगे। अथवा-."तौर्यत्रिकने खेद है कि नलको मारा अर्थात पीडित किया, क्योंकि भाग्य (पूर्वकृत पुण्यपापजन्य सुख या दुःख ) को पानेवाला मनुष्य भोग (पुण्यजन्य मुख या-पापजन्य दुःख ) को कहाँ नहीं पाता है ? अर्थात् सर्वत्र पाता है, अतएव नलको महलमें तो कामपीड़ा होती ही थी, विनोदार्थ एकान्त वनमें आनेपर भी उससे छुटकारा नहीं मिला' यह दूसरा मर्थ करना चाहिये / इस दूसरे अर्थके लिए 'मा' उपसर्गको खेदवाचक तथा परराध' क्रियापदमें 'राध' धातुको हिंसार्थक मानना चाहिये // 102 // तदर्थमध्याप्य जनेन तद्वने शुका विमुक्ताः पटवस्तमस्तुवन् / स्वरामृतेनोपजगुश्च शारिकास्तथैव तत्पौरुषगायनीकृताः // 103 / / तदर्थमिति / जनेन सेवकजनेन तदर्थ नलप्रीत्यर्थमध्याप्य स्तुति पाठयिस्वा तस्मिन् वने विमुका विसृष्टाः पटवः स्फुटगिः शुकास्तं नलमस्तुवन् / तथैव शुक्रव. देव तदर्थमध्याप्य मुक्ताः तत्पौरुषस्य नलपराक्रमस्य गायिन्यो गायकाः कृता गायः नीकृताः शारिकाः शुकवध्वः स्वरामृतेन मधुरस्वरेणेत्यर्थः / उपजगुश्च // 103 // ___उस ( नलकी स्तुति करने ) के लिए पढ़ाकर छोड़े गये चतुर ( स्पष्ट बोलनेवाले, याकही हुई स्तुतिका ठीक-ठीक अभ्यास किये हुए ) तोतोने उस नककी स्तुति की तथा उस (नल ) के पुरुषार्थ-गानको सिखायी गयी सारिकाओं ( मैंनों ) ने अमृततुल्य मधुर स्वर. से नलके पौरुषको गाया // 103 // इतीष्टगन्धाट्यमटन्नसौ वनं पिकोपगीतोऽपि शुकस्तुतोऽपि च | अविन्दतामोदभरं 'बहिश्वरं विदर्भसुभ्रविरहेण नान्तरम् / / 101 / / इतीति / इतीरथमिष्टगन्धाढ्य मिष्टसौगन्ध्यसम्पन्नं वनमटन् , 'देशकालाध्वगन्त. ज्या कर्मसंज्ञा ह्यकर्मणामिति वनश्य देशस्वात् कर्मस्वम् / असौ नलः पिकै कोकि. लैरुपगीतोऽपि शुकः स्तुतोऽपि च परं केवलं परं स्यादुत्तमानाप्तवैरिरेषु केवल' इति विश्वः। बहिरामोदभरं सौरभ्यातिरेकमेवाविन्दत विदर्भसुभ्रूविरहेण हेतुना आन्तरमामोदभरमानन्दातिरेकरूपनाविन्दत न लब्धवान् , प्रत्युत दुःखमेवान्वभूः दिति भावः / 'आमोदो गन्धहर्षयोरिति विश्वः // 104 // 1. बहिः परम्' इति पाठान्तरम् /