________________ प्रथमः सर्गः। दियगन्ताबट तत्र हृणीहिति डिस्करणादात्मनेपदम् / अकार्यकारिणं भर्तारमपि हन्ते स्त्रिय इति भावः // 133 // ( राजाका दण्ड देना धर्म है, इस पर वह हंस कहता है-) जिसकी जीविका जलभूमिमें उत्पन्न अर्थात् कमलोंके फल ( कमलगट्टा ) तथा मूल (कमल-नालकी बड़) से ( अथवा-जल में उत्पन्न होनेवाले कमलादिके तथा भूमिपर उत्पन्न होने वाले आत्रादि के फल तथा, कन्द से ) मुनिके समान है, ऐसे (दयापात्र ) मुझपर भी दण्ड प्रयोग करने वाले तुम्हारे ऐसे पतिसे पृथ्वी क्यों नहीं लज्जित होती ? / [दोनोंको दुःख देते हुए पति को देखकर उसकी स्त्री जिस प्रकार लज्जित होती है, उसी प्रकार फल मूलसे जीविका. निर्वाह करने वाले मुनिके तुल्य मुझको दण्ड देते हुए तुम्हें देखकर पृथ्वीको भी लज्जित होना चाहिये ] // 133 // इतीरशैस्तं विरचय्य वाङ्मयः सचित्रवैलक्ष्यकृपं नृपं खगः / दयासमुद्रे स तदाशयेऽतिथीचकार कारुण्यरसापगा गिरः / / 134 / / इतीति / इतीस्थं खगो हंसरतं नृपम् ईदृशैर्दोषालम्भरित्यर्थः, वाङमयैर्वाग्निकारैः 'एकाचो नित्यं मयटमिच्छती'ति विकारार्थे मयट्प्रत्ययः। पक्षिकथनात् चित्रं, परैः स्वाकार्योद्घाटनादपनपा वैलक्ष्यं, एरातिदर्शनेन तनिवर्तनेच्छा वा कृपा, तामिः सह वर्तत इति सचित्रवैल चयकृतं विरचय्य विधाय 'ल्यपि लघुपूर्वादिययादेशः। दयासमुद्रे तदाशये तचित्ते कारुण्यरसापगाः करुणारसनदीः गिरः अतिथीचकार प्रवेशयामासेत्यर्थः समुद्रे नदीप्रवेशो युक्त इति भावः // 134 // वह पक्षी ( हंस ) इस प्रकारके ( 1 / 120-133 ) वचनोंसे उस ( नल) को आश्चर्य, दुःख तथा कृपासे युक्त बनाकर दया-समुद्र उनके हृदय में करुणारस ( कारुण्यरूपी जल ) की नदीरूपिणी वाणियों को प्रवाहित कराया अर्थात समुद्र में जलपूर्ण नदियों के समान दयापूर्ण नलके हृदयमें करुणा रससे युक्त वचनोंको प्रविष्ट कराया-नहसे करुणापूर्ण वचन कहने लगा-। [नल सुवर्णमय हंस देखनेसे आश्चर्यित, अपनी निन्दा सुनने लज्जित तथा उसके वचन सुननेसे कृपास युक्त हो रहे थे] // 134 // मदेकपुत्रा जननी जरातुरा नवप्रसूतिर्वरटा तपस्विनी / गतिस्तयोरेष जनस्तमईयनहो विधे! त्वां करुणा रुणद्धि नो / / 13 / / तावद्रिः प्रपञ्चयति-मदित्यादिना / तत्र तावद् दवमुपालभते हे विधे ! जननी अहमेवैकः पुत्रो यस्याः सा मदेकपुत्रा मम नाशे तस्या गत्यन्तरं नास्तीत्यर्थः / जरातुरा स्वयमप्यसमर्थत्यर्थः, वरेटा स्वभार्या 'हंसस्य योषिरटे'त्यमरः। नव. प्रसूतिरचिरप्रसवा तपस्विनी शोच्या एव जनः स्वयमित्यर्थस्तयोर्जायाजनन्योर्गतिः शरणं तं जनं मामित्यर्थः, अर्दयन् पीडयन् हे विधे! विधातः ! स्वां करुणा नो रुणद्धि मत्पीडनाम निवारयतीति काकुः, न रुणदि किमिश्पर्यः // 135 //