________________ 63 द्वितीयः सर्गः समयन्ती तव परमत्यन्तं सदृशी अनुरूपेत्युपमालकारः / शूरस्य शूरैव भार्या भवितुमर्हतीति भावः // 29 // हे शूर ( नल ) ! जलरूपी दुर्गमें रहने वाली मृणाल की विजयिनी भुजाओं वाली, तथा मित्रसेवी (सूर्यसेवी, पक्षा०-सुहृद्रूप अलसे युक्त अर्थात सहायक सहित ) मी कमलों की शोमाको भुजाओं के विलासप्ते (पक्षा-करराजदेय भागके विकाससे ) सदा ग्रदण करनेवाली वह दमयन्ती एकमात्र आपके ही योग्य हैं, (क्योंकि शूरवीर को पत्नी शूरवीर स्त्री ही होती है ) // 29 // वयसी शिशुतातदुत्तरे सुदृशि स्वाभिविधिं विधित्सुनी / विधिनापि न रोमरेखया कृतसीम्नी प्रविभज्य रज्यतः // 30 // वयसी इति / सुशि दमयन्त्यां स्वाभिविधिं स्वव्याप्तिं विधिरसुनी विधातुमिछती अहमहमिकया स्वयमेवामितुमिच्छती इत्यर्थः, शिशुतातहत्तरे बाल्ययोबने वयसी विधिना सीमाभिज्ञेन रोमरेखपा सीमाचिह्नन प्रविभज्य रोमराजे प्रागेव अत्र शैशवेन स्थातव्यन्ततः परं यौवनेनेति कालतो विभागं कृत्वा, कत. सीग्नी कृतमर्यादे अपि 'विभाषा डिश्यो'रिस्यल्लोपः, न रज्यतः न सन्तुष्यतः। रम्यवस्तु दुस्त्यजमिति भावः / एतेन वयःसन्धिरुतः। अत्र प्रस्तुतवयोविशेषसाम्याप्रस्तुतविवादप्रतीतेः समासोक्तिरलकारः // 30 // सुनयना उस दमयन्तीमें अपनी अभिव्याप्तिको करने की अमिलाविणी ( 'मैं ही इस दमयन्ती में सर्वत्र व्याप्त होकर रहती हूं' ऐसा करने की इच्छा करनेवाली ) शैशव तया उसके बादवाली अर्थात् यौवन अवस्थाएँ ब्रह्माके द्वारा मी (नाभिके नीचे) रोमरेखासे विभागकर मर्यादित की गयी नहीं अनुरक्त होती हैं क्या ? अर्थात् अनुरक्त होती ही हैं। [ उस सुनयना दमयन्तीमें शैशवावस्था पहलेसे ही है तथा युवावस्थाका मी मारम्भ हो रहा है / लोकमें दो व्यक्तियों में सीमा-सम्बन्धी पारस्परिक विरोध होने पर कोई वृद्ध व्यक्ति उन दोनों के लिए सीमा बनाकर उन्हें सन्तुष्ट कर देता है। नाभिके नीचे रोभराज उत्पन्न होने से दमयन्तीकी यौवनावस्थाका आरम्भ होना सूचित होता है ] // 30 // अपि तद्वपुषि प्रसर्पतोर्गमिते कान्तिमरैरंगाधताम् / स्मरयौवनयोः खलु द्वयोः प्लवकुम्भौ भवतः कुचावुभौ // 31 // सम्प्रति यौवनमेवाश्रित्याह-अपीति / कान्तिझरैलावण्यप्रवाहैरगाधतां दरव. गाहतो गमिते तदपुषि दमयन्तीशरीरे प्रसर्पतोस्तरतोः स्मरयौवनयोईयोरपि उभौ कुची प्लवस्योन्मजनस्य कुम्भौ प्लवनार्थ कुम्भाविस्यर्थः, प्रकृतिविकारभावा. भावादश्वघासादिवत्तादर्थे षष्ठीसमासः / लोके तरद्भिः अनिमजनाय कुम्भादिकम. लम्ब्यत इति प्रसिद्धं, भवतः खलु / मत्र कुचयोः स्मरयौवनप्लवनकुम्मस्वोस्प्रेक्षया तयोरोस्कटयं कुचयोश्चातिवृदिय॑ज्यत इत्यलङ्कारेण वस्तुध्वनिः // 31 //