________________ नैषधमहाकाव्यम् / स इति / ससम्भ्रमं सस्वरमुत्पातिना उड्डीयमानेन पतस्कुलेन पचिसोनाकुलं सकुलं सरः कत्त उरकतया उन्मनस्तया 'उत्फ उन्मना' इति निपातनादिविधानाच साधुः। अनुकम्पितां प्रपद्य कृपालुतां प्राप्य तं नृपमूर्मिलोलैश्चलैारितहैः करैरिति ज्यस्तरूपकम, पतग्रहास्पतिग्रहात् न्यवारय दिवेत्युस्प्रेक्षा। वास्तवनिवारणासम्भ वादुस्प्रेचा, निवारणस्य करसाध्यत्वात् तत्र रूपकाश्रयणम्, अत एवेवशब्दस्य उप. माबाधेनार्यानुसाराद्वयवहितान्वयेनाप्युस्प्रेचाव्यजकत्वमिति, रूपकोस्प्रेच्योरङ्गाङ्गिभावेन सहरः // 126 // (सनातीय हंसके पकड़े जानेपर ) भयसे उड़े हुए पक्षि-समूहसे व्याप्त ( अतएव पक्षियों के उड़नेसे उत्पन्न वायुसे ) ऊपर उठते हुए जलसे कम्पनको प्राप्त (या-हंस-विषयक उत्कण्ठासे दयालुताको प्राप्त ) वह तडाग तरहोंने चश्वक कमलरूप हाथों के द्वारा पक्षी ( हंस ) पकड़नेसे रामा नलको मना-सा कर रहा था। [ हंसके पकड़े जानेसे तहाग. वासी पक्षी जब मयसे एक साथ उड़ गये और उनके पडोंकी हवासे तडागका जल चञ्चल हो गया तथा तरकोंसे कमल हिलने लगे, तब ऐसा प्रतीत होता था कि वह तडाग राजा नलको पक्षी पकड़नेसे उस प्रकार निषेध कर रहा है, जिस प्रकार अनुचित रूपसे किसीके द्वारा किसी व्यक्तिके पकड़े जानेपर दूसरा दयालु व्यक्ति हाथोंको हिलाकर वैसे काम करनेसे उस व्यक्तिको मना करता है ] // 126 // पतत्त्रिणा तद्रुचिरेण वञ्चितं श्रियः प्रयान्त्याः प्रविहाय पल्वलम् / चलत्पदाम्भोरहनूपुरोपमा चुकूज कुले कलहंसमण्डली / / 127 // पतस्त्रिणेति / रुचिरेण पतस्त्रिणा हंसेन वञ्चितं विरहितं तत्पल्वलं सरः विहाय प्रयानस्याः गच्छन्याः श्रियो लक्ष्म्याश्वलद्भयां पदाम्भोरुहनूपुराभ्याम् उपमा साम्यं पस्याः साकळहंसमण्डली कूले चूकूज / यूथभ्रंशे कूजनमेषां स्वभावस्तत्र हंसेनैव सह गच्छन्त्याः सम्शोभायाः श्रीदेव्या सहाभेदाध्यवसायेन कूजस्कलहंसमण्डल्यां तन्नूपुरस्वमुस्प्रेषयते / उपमाशब्दोऽपि मुख्यार्थानुपपत्तेः सम्भावनालक्षक इत्यः बधेयम् // 127 // सुन्दर इस पक्षी (इंस ) से रहित तडागको छोड़कर जाती हुई लक्ष्मी ( पक्षाशोमा) के ( चखनेसे ) चन्चल चरण-कमलके नूपुरोंके समान राजहंस-समूह तीरपर कूबने (शम्द करने) लगा। [लोकमें भी प्रियसे रहित स्थानको छोड़कर जाती हुई नायिकाके चरणके नूपुर शद करते हैं। जाती हुई कहनेसे लक्ष्मीका वहाँसे तरक्षण माना ध्वनित होता है ] / / 127 // न वासयोग्या वसुधेयमीहशस्त्वमङ्ग ! यस्याः पतिरुज्झितस्थितिः / इति प्रहाय क्षितिमाश्रिता नभः खगास्तमाचुक्रशुरारवैः खलु / / 128 // नेति / इयं वसुधा वासयोग्या निवासार्हा न, कुतः अङ्ग मोर ! यस्या वसुधाया