________________ प्रथमः सर्गः। यासान्ताः कुसुमेषु विषये केलयः क्रीडाः कुसुमेषु केलयः कामकीडाश्च विलोकिताः सत्यस्तं नृपं नलं मिनिमीलो मिलनं यस्य तं विदधुः निमीलिताक्षरित्यर्थः / विरहिणामुद्दीपकदर्शनस्य दुःसहदुःखहेतुस्वात् अन्यत्र ('नेक्षेता न नाग्नां स्त्रों न च संस्पृष्टमैथुनामिति निषेधादिति भावः।) अत्र प्रस्तुतनमस्वद्विशेषणसाम. दिप्रस्तुतकामुकविरह प्रतीतेः समासोक्किरलङ्कारः // 97 // ___ सामने ( पाठा०-पहले ) हठपूर्वक बर्फके समान श्वेत पत्ते रूप आवरण ( वस्त्र ) को हटानेवाली, वायुकी लताओं में विलास ( या-विशिष्ट भ्रम, या-पक्षियों का भ्रम ) करने वाली, पुष्पविषयक क्रीडाओं ( या-कामक्रीडाओं ) ने नलके नेत्रों को बन्द कर दिया अर्थात् उसे देखकर नलने अपने नेत्र बन्द कर लिये। अथवा-सामने हठ पूर्वक हटाये गये तुषार तुल्य श्वेत पत्तोंवाली, घेरेकी लताओंमें विशिष्ट भ्रम ( या-पक्षियोंका भ्रम ) पैदा करनेवाली, वायुकी पुष्पों में क्रीडा (या-वायुको कामक्रीडा ) ने नलके नेत्रों को बन्द कर दिया। (सी-पुरुषकी कामक्रीडा देखने का स्मृतिशास्त्र में निषेध होनेसे श्रीरूपिणी लताके साथ पुरुषरूपी वायुकी कालक्रीडाको देखकर मानो नलने नेत्रों को बन्द कर लिया, वास्तव में तो वायुके द्वारा हिलायी जाती हुई लताओं का देख ना कामोद्दीपक होनेसे उनके असह्य होनेसे नलने नेत्रों को बन्द कर लिया था ] // 97 // / गता यदुत्सङ्गतले विशालता द्रुमाः शिरोभिः फलगौरवेण ताम् / कथं न धात्रीमतिमात्रनामितैः स वन्दमानानभिनन्दतिस्म तान् ? ||8|| गता इति / द्रमा यस्या धाच्या उत्सङ्गतले उपरि देशे च विशालतां विद्धिं गताः तां धात्रीभुवञ्च उपमातरं वा 'धात्री जनन्यामलकी वसुमत्युपमातृष्विति विश्वः / 'धा कर्मणि ष्ट्रनिति दधातेः ष्ट्रन्प्रत्ययः / फलगौरवेण फल मरेण सुकृताति. शयेन च हेतुना अतिमानं नामितैः, प्रह्वीकृतैः, नमेमिश्वविकल्पाद्धस्वाभावः। शिरोभिरग्रैः उत्तमाङ्गेश्व वन्दमानान् स्पृशतोऽभिवादयमानांश्च तान् प्रकृतान् दुमान् अत एव यच्छब्दानपेक्षी स नलः कथं नाभिनन्दति स्म अभिननन्दैवेत्यर्थः / वृताणां क्षेवानुरूपफलस्य सम्पत्तिमपत्यानां च मातृभक्किन को नाम नाभिनन्द. तीति भावः / अत्रापि विशेषगसामर्यात् पुत्रप्रतीतेः समासोक्तिरलंकारः / / 98 // __ बो पृथ्वीके उत्सङ्ग ( कोट = गोद, पक्षा०- भूतल ) में विशाल हुये थे अर्थात पलकर बड़े हुए थे, वे पेड़ फलों ( पक्षा०-पुण्योत्पन्न मनोरथ-प्राप्ति ) गौरव (मारीपन, पक्षागुरुता ) से अतिशय नम्र किये गये शाखामों ( पक्षा०-मस्तकों ) से उस पृथ्वी (पक्षामाता) की वन्दना करते हुए उन पेड़ोंका नल क्यों नहीं अभिनन्दन करते ? अर्थात् अवश्यमेव अमिनन्दन करते / (लोकमें भी माताकी गोद में बढ़कर विद्याध्ययनादि फलके गौरवसे अत्यन्त नम्रमस्तक हो उस माताकी वन्दना करनेवाले पुत्र का सज्जन लोग जिस प्रकार अमिनन्दन करते हैं, उसी प्रकार भूतलपर बढ़कर फलों के मारसे मस्यन्त झुकी हुई