________________ नैषधमहाकाव्यम् / हुई कामदेवकी) बहि-दीपिकामों (पूनार्थ दीपकों ) के समान चम्पककी कलिकामों के समूहको उस (नल ) ने देखा। [चम्पककलियों के कामोद्दीपक होने से उन्हें देखकर विरही पथिक उस प्रकार मर जाते थे जिस प्रकार दीएककी लोपर पतङ्ग (फुनगे) मर जाते हैं, एन कलिकाओंपर बैठनेवाले भ्रमर उन दोपकोंके कजलके समान मालूम पड़ते थे, उसीको कविने पथिकों के मरनेसे उत्पन्न अयशको उत्प्रेक्षा की है, उन्हें कामदेवके पूजा दीपकोंके समान नलने देखा। दीपककी लौ के समान चम्पाकी कलियाँ भी पीली होती हैं। कुछ डोगोंका मत है कि चम्पाके फलपर भ्रमर नहीं बैठते और उसपर बैटते तो है, किन्तु मर माते है, ऐसा प्रामाणिक लोग कहते हैं, यह 'प्रकाश' कारका कथन है ] // 86 // अमन्यतासौ कुसुमेषुगर्भज परागमन्धकरणं वियोगिनाम् / स्मरेण मुक्तेषु पुरा पुरारये तदङ्गभस्मेव शरेषु सङ्गतम् // 87 // अमन्यतेति / असौ नलः कुसुमाग्येव इषवः कामबाणास्तेषां गर्भ गर्भजातं वियोगिनामिति कर्मणि षष्ठी।अन्धाः क्रियन्तेऽनेनेत्यन्धङ्करणं 'भाग्यसुभगे'त्यादिना भव्यर्थे ज्युन्प्रत्ययः, 'अरुर्विषदित्यादिना मुमागमः। तं परागं पुरा पूर्व पुरारये पुरहराय स्मरेण मुक्तेषु शरेषु सङ्गतं संसक्तं तस्य पुरारेरो यद्दस्म तदिवामन्यत इति उत्प्रेरितवानित्यर्थः / पुरा पुरारये ये मुक्तास्त एवैते पुरोवर्तिनः कुसुमेषव इत्यभिमानः, अन्यथैषां तदङ्गमस्मसङ्गोस्प्रेक्षानुस्थानादिति // 87 // रस (नल ) ने फूलों के मध्यगत परागको वियोगियोंको अन्धा करनेवाला, पूर्वकालमें कामदेवके द्वारा शिवजीपर छोड़े गये (पुष्पमय ) वाणों में लगा हुआ शिवजीके शरीरका भस्म माना। [ भस्म आँखमें पड़नेपर लोगोंको अन्धा कर देता है तथा फूलोंके परागोंको देखकर विरही मी कामपीड़ित हो अन्धे ( विवेकहीन ) हो जाते हैं ] / / 87 / / पिकाद्वने शृण्वति भृङ्गहुकृतैर्दशामुदश्चत्करुणं वियोगिनाम् / अनास्थया सूनकरप्रसारिणीं ददर्श दूनः स्थलपद्मिनी नलः // 8 // पिकादिति / बने उपवने श्रोतरि पिकाक्तः सकाशात् भृङ्गहुकृतैर्वियोगिनां दशामलिहुशरकृतां दुःखावस्थामित्यर्थः / उदवरकरुणं विकसवृक्षविशेषमुद्यस्कृपञ्च यथा तथा अण्वति सति, 'करुणस्त रसे वृक्ष कृपायां करुणा मते'ति विश्वः / अनास्थया श्रोतुमनिच्छया सूनं प्रसूनमेव करं प्रसारयतीति प्रसारिणी पुष्परूप. हस्तविस्तारिणी तथोक्कामनिष्टकथां करेण वारयन्तीमिव स्थितामित्यर्थः / सूनकरेति प्रसारिणीमितिरूपकानुप्राणिता गम्योत्प्रेक्षयम् / स्थलपद्मिनी नलो दूनः परितप्तः सन् दुडः कर्तरिक':, 'स्वादिभ्यश्चेति निष्ठानस्वम् / बदर्श // 88 // 1. इयं भ्रममूलिकोक्तिः स्वादिषु 'लू स्तृञ् कृञ् वे धूञ् श प व भ म दृ ज (झ ध) न कृ ऋ गृ ज्या रीकी की प्ली' इत्येतेषामेव धातूनां परिंगणनात् / ततो दीपांदूरः स्वादिस्खेनौदिसवानिष्ठानः' इति 'प्रकाश'व्याख्यानमेव सदित्यवधेयम् / 8 .