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अन्तिम उत्कृष्ट तक का 'मध्यम असंख्यात असंख्यात' कहलाता है तथा जघन्य असंख्यात असंख्यात' को अभ्यास गुणा करते 'उत्कृष्ट असंख्यात असंख्यात' होता है यदि वह एक रूपहीन हो तो तथा एक रूपहीन स्थान पर एक रूप युक्त हो तो वह 'जघन्य परीत्त अनंत' होता है और वहां से वह अन्तिम 'उत्कृष्ट परीत्तानंत' तक का मध्यम परीत्त अनंत होता है। अब एक रूपहीन 'जघन्य परीत्त अनंत' को पूर्व के समान अभ्यास गुणित करते उत्कृष्ट परीत्त अनंत होता है और उसमें जब एक रूप मिलाने में आता है तब जघन्य युक्त अनंत होता हैं। उसके बाद और 'उत्कृष्ट युक्त अनन्त' के पहले का- वह मध्यम युक्त अनंत होता है। एक रूपरहित 'जघन्ययुक्त अनन्त' को अभ्यास गुणा करने से उत्कृष्ट अनन्त होता है
और उसमें एक रूप मिलाने से तो 'जघन्य अनंतानंत' होता है । इससे अधिक हो वह सारा 'मध्यम अनंतानंत' होता है और 'उत्कृष्ट अनन्त अनन्त' तो जैन सिद्धान्तों के मत में ही नहीं है। गणधर भगवन्तों ने भी अनुयोग द्वार सूत्र में इसी तरह ही कहा है। (१७२ से १८१)
अभिप्रायः समग्रोऽयं प्रोक्तः सूत्रानुसारतः । अथ कर्मग्रन्थिकानां मतमंत्र प्रपंच्यते ॥१८२॥ समद्विधातो वर्गः स्यात् इति वर्गस्य लक्षणम् ।। पञ्चानां वर्गकरणे यथास्युः पंच विंशतिः ॥१८३॥ जघन्ययुक्ता संख्यातावधि तुल्यं मतद्वये । अतः परं विशेषोऽस्ति स चायं ,परिभाव्यते ॥१८४॥
ऊपर के सभी अभिप्राय सूत्रों के अनुसार कहे हैं । अब कर्म ग्रन्थकारों ने क्या कहा है उसे देखो - किसी भी संख्या को उसी संख्या से गुणा करते जो संख्या आती है यह उसका वर्ग' कहलाता है। जैसे कि पांच को पांच से गुणा करते पच्चीस होता है, यह पच्चीस पांच का वर्ग कहलाता है। सूत्र और कर्म ग्रन्थ दोनों के मत में जघन्ययुक्त असंख्यात तक तो सारा एक समान है, उसके बाद मतभेद दिखते है। (१८२ से १८४) . वह इस प्रकार
जघन्य युक्ता संख्यातादारभ्योत्कृष्टतावधि । मध्यमं युक्ता संख्यातं स्यादुत्कृष्टमथोच्यते ॥१८॥ जघन्य युक्ता संख्यातं वर्गितं रूप वर्जितम् । उत्कृष्ट युक्ता संख्यातं प्राप्तरूपैः प्ररूपितम् ॥१८॥