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(२६५) एष सूत्रादेशः। अन्ये पुनः आहुः षोडश कर्माण्येव पूर्वं क्षपयितुमारभते॥ केवलमपान्तरालेऽष्टौ कषायान् क्षपयति पश्चात् षोडश कर्माणि इति कर्म ग्रन्थ वृत्तौ॥
इस तरह से सूत्र आदेश है। अन्य इस प्रकार कहते हैं कि पहले तो वह सोलह प्रकृतियों को ही खमत (खपाने) का आरम्भ करते हैं । कर्म ग्रन्थ की वृत्ति में तो यह कहा है कि बीच में तो केवल आठ कषायों को ही खत्म करते हैं और फिर सोलह प्रकृतियां खत्म करते हैं।'
क्रमः पुंस्यारम्भकेऽयं स्त्री तु क्षपयति क्रमात् । क्लीब पुंवेद हास्यादि षट्कं स्त्रीवेदमेव च ॥१२३२॥
इस क्रम से जब पुरुष आरम्भक होता है तब ही समझना । यदि आरम्भक स्त्री हो तो वह नपुंसक वेद, पुरुष वेद, हास्य आदि छ: और अन्त में स्त्री वेद को अनुक्रम से खत्म करती है । (१२३२)
क्लीबस्त्वारम्भको नूनं स्त्रीवेदं प्रथमं क्षपेत् । पुंवेद हास्यषट्कं च नपुंवेद ततः क्रमात् ॥१२३३॥
और यदि आरंभक अर्थात् क्षणिका आरम्भ करने वाला नपुंसक हो तो वह प्रथम स्त्रीवेद को खत्म करता है, फिर पुरुष वेद, हास्यादि छ: को और अन्त में नपुसंक वेद - इस तरह अनुक्रम से खतम करता है । (१२२३)
ततः संज्वलन क्रोधमान मायाश्च सोऽन्तयेत् । ततः संज्वलनं लोभं क्षपये द्दशमे गुणे ॥१२३४॥
उसके बाद संज्वलन जाति के क्रोध, मान और माया का क्षय करता है और । उसके बाद दसवें गुण स्थान में संज्वलन लोभ का अन्त करता है । (१२३४)
लोभे च मूलतः क्षीणे निस्तीर्णो मोह सागरम् । - विश्राम्यति स तत्रान्तर्मुहूर्त क्षपको मुनिः ॥१२३५॥
और लोभ जड़-मूल से नष्ट होने के बाद क्षपक मुनि मोह सागर को पार कर लेते हैं फिर अन्तर्मुहूर्त विश्राम लेते हैं। (१२३५)
तथोक्तं महाभाष्येखीणे खवगनियट्ठो वी समये मोह सागरं तरिउम् ।
अंतोमुहूत्तमुदहिं तरिउं घाहे जहा पुरिसो ॥१२३६।। . महाभाष्यकार ने इस विषय में कहा है कि- सर्व कषायों के क्षीण होने पर