________________
(४६५) देवों का तीसरा भेद ज्योतिषी देव है । इसके पांच प्रकार हैं- सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र और तारा। इनमें कई स्थिर रहते हैं और कई गतिमान हैं । अतः इस तरह (५४२ = १०) दस भेद होते हैं। (५८)
वैमानिका द्विधा कल्पातीत कल्पोपपन्नकाः । कल्पोत्पन्ना द्वादशधा तेत्वमी देवलोकजाः ॥५६॥ सौधर्मेशान सनत् कुमार माहेन्द्र ब्रह्म लांतकजाः । शुक्र सहस्रारानत प्राणतजा आरणाच्युतजाः ॥६०॥
देवों के अन्तिम चौथे वैमानिक देव के विषय में कहते हैं- वैमानिक देव के दो भेद हैं, १- कल्पोपपन्न और.२- कल्पातीत। इसमें भी कल्पोपपन्न के बारह भेद होते हैं । ये बारह देवलोक कहलाते हैं । वह इस प्रकार- १- सौधर्म, २- ईशान, ३- सनत् कुमार, ४- माहेन्द्र, ५- ब्रह्म, ६- लांतक, ७- शुक्र, ८- सहस्रार, ६- आनत, १०- प्राणत, ११- आरण और १२- अच्युत। (५६-६०)
आद्यकल्पद्वयाधः स्थास्तृतीयाद्यस्तना अपि । लान्तकत्रिदिवाधः स्थास्त्रिधा किल्विषिका अमी ॥६१॥
किल्विष देव तीन प्रकार के होते हैं; १- पहला दो देवलोक के नीचे रहता है, २- दूसरा तीसरे देवलोक के नीचे रहता है और ३- तीसरा छठे लांतक देवलोक के नीचे रहता है। (६१)
कल्पातीता द्विधा ग्रैवेयकानुत्तर सम्भवाः ।
स्वामिसेवक भावादि कल्पेन रहिता इमे ॥२॥ - और जो पूर्व कल्पातीत देव कहा है उसके दो भेद हैं, १- ग्रैवेयक में होने वाले और २- अनुत्तर विमान में होने वाले। कल्प अर्थात् स्वामी- सेवक भाव रूपी रिवाज अतीत अर्थात् यह जिसमें न हो वह कल्पातीत कहलाता है । इन देवलोकों में स्वामित्व या सेवकत्व का भाव जैसा कुछ नहीं है। (६२)
अधस्तनाधस्तनं च स्यादधस्तनमध्यमम् । अधस्तनो परितनं मध्यमाद्यस्तनं ततः ॥६३॥ भवेन्मध्यममध्यं च मध्योपरितनं ततः । उपरिस्थाधस्तनं चोपरिस्थमध्यमं पुनः ॥६४॥