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कृष्ण पाक्षिक लक्षणं च एवम्बहुपापोदयाः क्रूर कर्माणाः कृष्ण पाक्षिकाः । स्युर्दीर्घतर संसारा भूयांसोऽन्यव्यपेक्षया ॥१२१॥ तथा स्वभावत्ते भव्या अपि प्रायः सुरादिषु । उत्पद्यन्ते दक्षिणस्यां प्राचुर्येणान्यदिक्षु न ॥१२२॥
शुक्ल पाक्षिक और कृष्ण पाक्षिक जीव का लक्षण इस प्रकार है:- कृष्ण पाक्षिक जीव शुक्ल पाक्षिक की अपेक्षा से बहुत पापी होते हैं, क्रूर होते हैं और दीर्घ संसारी होते हैं । इनका ऐसा स्वभाव होने के कारण ही ये भव्य होने पर भी दक्षिण दिशा में अधिक रूप देवगति में उत्पन्न होते हैं। अन्य दिशाओं में नहीं होते हैं। (१२१-१२२) .. .. तथाहुः- पायमिह कूरकम्मा भवसिद्धिया वि दाहिणिल्लेसु । - नेरइ यति रियमणु आसुराइठाणेसु गच्छंति ॥१२३॥ जेसिम वट्टो पुग्गल परियट्टो सेसओ उ संसारो । .. . ते सुक्क पख्खिया खलु अहिए पुण कण्ह पख्खीओ ॥१२४॥
इति प्रज्ञापना वृत्तौ ॥ तथा इस सम्बन्धी प्रज्ञापना सूत्र की वृत्ति में कहा है कि- कृष्ण पाक्षिक जीव भव्य होता है फिर भी प्रायः दुष्टकर्मी होने से देवादिक की गति में दक्षिण दिशा में ही उत्पन्न होता है । शुक्ल पाक्षिक जीव का यद्यपि अर्धपुद्गल परावर्तन जितना संसार शेष रहता है फिर भी इससे तो कृष्ण पाक्षिक का अधिक होता है। (१२३-१२४)
आनतेभ्योऽसंख्यगुणाः सहस्रार सुराः स्मृताः । महाशुक्रे लान्तके च ब्रह्ममाहेन्द्रयोः क्रमात् ॥१२५॥ सनत्कुमार ईशानैऽप्य संख्यना यथोत्तरम् । एशानेभ्यश्च सौधर्मदेवाः संख्य गुणाधिका ॥१२६॥
आनंत देवलोक के देव से सहस्रार देवलोक के देव असंख्य गुणा होते हैं। महा शुक्र, लांतक, ब्रह्म, माहेन्द्र, सनत्कुमार और ईशान- इतने देवलोक के देव अनुक्रम के द्वारा आनत से असंख्य गुणा हैं । सौधर्म देवलोक के देव ईशान के देवों से संख्यात गुणा होते हैं। (१२५-१२६)