Book Title: Lokprakash Part 01
Author(s): Padmachandrasuri
Publisher: Nirgranth Sahitya Prakashan Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 579
________________ (५४२) मूल प्रकृति भेदेन तच्च कर्माष्टधा मतम् । स्यात् ज्ञानावरणीयाख्यं दर्शनावरणीयकम् ॥१४४॥ वेदनीयं मोहनीयमायुगौत्रं च नाम च । अन्तरायं चेत्यथैषामुत्तर प्रकृतीबुवे ॥१४५॥ इस कर्म मूल प्रकृति के दृष्टिबिन्दु से आठ भेद होते हैं - १. ज्ञानावरणीय, २. दर्शनावरणीय, ३. वेदनीय, ४. मोहनीय, ५. आयु, ६. गोत्र, ७. नाम और ८. अन्तराय कर्म । और इसकी उत्तर प्रकृति इस तरह है । (१४४-१४५) ज्ञानानि पंचोक्तानि प्राक् यच्च तेषां स्वभावतः ।। अच्छादकं पट इव दृशां तत् पचंधा मतम् ॥१४६॥ . . पूर्व में जो पांच प्रकार के ज्ञान का वर्णन किया है उस ज्ञान को, जैसे चक्षु को वस्त्र आच्छादित करता है, वैसे आच्छादन करने वाला जो कर्म है उसे ज्ञानावरणय कर्म कहते हैं । (१४६) . मति श्रुतावधि ज्ञानावरणानि पृथक् पृथक् । मनःपर्यायावरणं केवलांवरणं तथा ॥१४७॥ वह भी पांच प्रकार का होता है- १. मतिज्ञानावरणीय, २. श्रुतज्ञानावरणीय, ३. अवधिज्ञानावरणीय, ४. मनः पर्यवज्ञानावरणीय और ५. केवल ज्ञानावरणीय । (१४७) आवृतिश्चक्षुरादीनां दर्शनानां चतुर्विधा । . निद्राः पंचेति नवधा दर्शनावरणं मतम् ॥१४८॥ और चक्षु दर्शन आदि जो दर्शन भी पहले वर्णन कर गये हैं उस दर्शन के चार भेद हैं और पांच प्रकार की निद्रा है । इस तरह नौ प्रकार के दर्शन आवरण होते हैं । (१४८) सुख प्रबोधा निद्रा स्यात् सा च दुःख प्रबोधका । निद्रानिद्रा प्रचला च स्थिति स्योर्द्ध स्थितस्य वा ॥१४॥ गच्छतोऽपि जनस्य स्यात्प्रचलाप्रचलाभिधा । स्त्यानर्द्धिर्वासुदेवार्धबलाहश्चिन्तितार्थ कृत् ॥१५०॥ निद्रा पांच प्रकार की कही है। वह इस प्रकार है-१. निद्रा अर्थात् जिससे सुख- पूर्वक जाग्रत हो जाय, २. निद्रानिद्रा - जिससे दुःखपूर्वक बड़ी मुश्किल से

Loading...

Page Navigation
1 ... 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634