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(५५१) . पूर्वोक्तव्युत्तरशतादेषां षट् त्रिंशतस्ततः ।
कृतेऽपसारणे सप्तषष्ठिर्भेदा भवन्ति ते ॥२०३॥ - परन्तु पंद्रह प्रकार का बन्धन और पांच प्रकार का संघातन-इन बीस नाम कर्मों के बन्धत्व और सजातीयत्व के कारण स्वांग से अलग गणना नहीं करनी चाहिए । और कृष्णादि भिन्न भेद से वर्ण, रस, स्पर्श और गन्ध- इन चार के बीस भेद गिने हैं । इसके स्थान पर भेद बिना केवल सामान्यतः चार भेद हैं । इस कारण से तो बीस और सोलह मिलाकर छत्तीस भेद कम होते हैं । अतः एक सौ तीन में से ये छत्तीस घटा देने से सड़सठ भेद रहते हैं । (२०१ से २०३)
बन्धे तथोदये नाम्नः सप्तषष्ठिरियं मता ।
षट् विंशतिश्च मोहस्य बन्धे प्रकृतयः स्मृताः ॥२०४॥ ....... नाम कर्म के बन्धन तथा उदय में ये सड़सठ प्रकृति कही हैं और मोहनीय कर्म बन्धन में छब्बीस प्रकृतियां कही हैं । (२०४)
सम्यक्त्वमिश्रमोहौ यज्जातु नो बन्धमर्हतः । एतौ हि शुद्धाशुद्धमिथ्यात्व पुद्गलात्मकौः ॥२०५॥ त्रिपंचाशत् प्रकृतयस्तदेवं शेष कर्मणाम् ।
नाम्नश्च सप्तषष्ठिः स्यु शतं विंशं च मीलिताः ॥२०६॥ - . क्योंकि समकित मोहनीय और मिश्र मोहनीय- ये दो कभी भी बन्धन करने योग्य नहीं हैं, क्योंकि ये दोनों शुद्ध और अर्धशुद्ध मिथ्यात्व पुद्गल रूप हैं । इससे २८.में से २ निकाल देने पर छब्बीस भेद होते हैं । इस तरह उसके बिना शेष कर्मों की तरेपन प्रकृतियां होती हैं और इसके साथ नामकर्म की सड़सठ प्रकृति मिला देने से कुल एक सौ बीस प्रकृति होती हैं । (२०५-२०६)
... अधिक्रियन्ते बन्धे ता उदयोदीरणे पुनः । - सम्यक्त्व मिश्र सहितास्ता द्वाविंशशतं खलु ॥२०७॥ ___ इन एक सौ बीस प्रकृतियों का बंधन के अन्दर अधिकार है, परन्तु उदय
और उदीरणा में तो सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्र मोहनीय सहित ये एक सौ बाईस होती हैं । (२०७)
नाम्नास्त्र्याढचं शतं पंच पंचाशत् शेष कर्मणाम्। · सत्तायामष्ट पंचाढयमेवं प्रकृतयः शतम् ॥२०८॥