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इस तरह नामकर्म की एक सौ तीन प्रकृतियां होती हैं, और अन्य कर्मों की पचपन प्रकृतियां मिलाकर कुल १५८ प्रकृतियां सत्ता में गिनी जाती हैं । (२०८)
चेत् बन्धनानि पंचैव विवक्ष्यन्ते तदा पुनः ।
अष्ट चत्वारिंश शतं, सत्तायां कर्मणामिद : ॥२०६॥ .
इसमें भी यदि बन्धन पांच ही गिने जायं तो एक सौ अड़तालीस प्रकृतियां सत्ता में रहती हैं । (२०६)
नामकर्म प्रकृतीनामथै तासां निरूप्यते । .. प्रयोजनं गुरु प्रान्ते समीक्ष्य समयोदधिम् ॥२१०॥
इस तरह गुरु महाराज के पास सिद्धान्त की समीक्षा कर के इस नाम कर्मः .. प्रकृतियां का प्रयोजन इसी तरह समझाने में आया है । (२१०)
चतुर्यो गतिनामभ्यः प्राप्तिः स्व स्वगतेर्भवेत् । पंचभ्यो जातिनामभ्योऽप्येकद्वयाद्यक्षता भवेत् ॥२११॥
चार गति नामकर्म हैं, इनसे अपनी अपनी गति की प्राप्ति होती है। पांच जाति नामकर्म हैं, इनसे एकेन्द्रियत्व, द्वीन्द्रियत्व आदि की प्राप्ति होती है । (२११)
पंचानां वपुषां हेतुः स्याद्वपुर्नाम पंचधा ।
औदारिक वैक्रियाहारकांगोपांग साधनम् ॥२१२॥ पांच शरीर नामकर्म हैं । ये पांच शरीर का हेतुभूत हैं और औदारिक वैक्रिय और आहारक अंगोपांगों के साधन बनाने वाला है । (२१२)
विधांगोपांगनाम् स्यात् बन्धनानि च पंचधा ।
स्युः पंचदशवांगानां मिथः सम्बन्ध हेतवः ॥२१३॥ . .
तीन प्रकार का अंगोपांग नामकर्म है और पांच प्रकार के अथवा पंद्रह प्रकार के बन्धन, ये सभी अंगों परस्पर के सम्बन्ध के हेतुभूत हैं । (२१३)
असस्तु बन्धनेष्वेषु संघात नामकर्मणा । संहृतानां पुद्गलानां बन्धो न घटते मिथः ॥२१४॥ सक्तूनां संगृहीतानां यथा पत्रकरादिना । घृतादिश्लेषणद्रव्यं बिना बन्धो मिथो न हि ॥१५॥