Book Title: Lokprakash Part 01
Author(s): Padmachandrasuri
Publisher: Nirgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 587
________________ (५५०) तत्र वर्णो नील कृष्णौ कटुतिक्ताभिधौ रसौ । गुरुः खरो रूक्ष शीताविति स्पर्श चतुष्टयम् ॥१६५॥ दुर्गन्धश्चेति नवकमशुभं परिकीर्तितम् । वर्ण गन्ध रस स्पर्शाः शेषास्त्वेकादशोत्तमाः ॥६६॥ इसमें नील और कृष्ण- ये दो वर्ण कड़वे और तीखे हैं । ये दो रस; गुरु, खर, रुक्ष और शीत- ये चार स्पर्श तथा दुर्गन्ध; ये कुल नौ अशुभ हैं और शेष ग्यारह अर्थात् तीन वर्ण, तीन रस, चार स्पर्श और एक गंध- ये ग्यारह शुभ होते हैं। (१६५-१६६) आनुपूर्व्यश्चतस्रः स्युश्चतुर्गति समाभिधाः । द्विधा विहायोगतिः स्यात् प्रशस्तेतर भेदतः ॥१६॥ आनुपूर्वी चार हैं- १. नरक, २. तिर्यंच, ३. मनुष्य और ४. देव । विहायो गति दो प्रकार की है- प्रशस्त और अप्रशस्त । (१६७) . . एवं भेदाः पंचषष्टिः पिण्ड प्रकृतिजाः स्मृताः । . पंचानामौदारिकादि बन्धनानां विवक्षया ॥१६॥ इसी तरह औदारिक बंधन के पांच गुना करने पर नाम कर्म के पिण्ड प्रकृति से होने वाले सब मिलाकर पैंसठ भेद होते हैं । (१६८) सा पंच षटिरष्टाविंशत्या प्रकृतिभिः पुरोक्ताभिः। प्रत्येकाभिर्युक्ताः स्युः नाम्नः त्रिनवतिः भेदाः ॥१६॥ इन पैंसठ में पूर्व कथित अट्ठाईस प्रकृतियां मिलाने पर नाम कर्म के तिरानवें भेद होते हैं । (१६६) बन्धनानां पंचदशभेदत्वे च विवक्षिते । स्युः नामकर्मणो भेदाः त्रिभिः समधिकं शतम् ॥२००॥ और यदि औदारिक आदि बन्धनों के पांच के स्थान पर पंद्रह भेद गिने जायं तो वे सब मिलाकर नामकर्म के एक सौ तीन भेद होते हैं । (२००) बन्धसंघातननाम्नामिह पंचदसपंचसंख्यानाम् । सहबन्ध सजातीयत्वाभ्यां नस्वांगतः पृथग्गणनम् ॥२०१॥ कृष्णादि भेदभिन्नाया वर्णादिविंशतः पदे । सामान्येनैव वर्णादि चतुष्कमिह गृह्यते ॥२०२॥ .

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