Book Title: Lokprakash Part 01
Author(s): Padmachandrasuri
Publisher: Nirgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 612
________________ (५७५) अब पुद्गल के प्रयोगबन्ध का तीसरा भेद जो शरीर बन्ध है, उस विषय में कहते हैं। इसके दो भेद हैं, १- पूर्व प्रयोग से उत्पन्न हुआ और २- उत्पन्न हुए प्रयोग में से उत्पन्न हुआ - अभूतपूर्व । (३६) तत्राद्योऽन्य समुद्घाते क्षिप्तानां देहतो बहिः । . तैजस कार्मणाणूनां पुनः संकोचने भवेत् ॥४०॥ शरीर द्वारा बाहर की अपेक्षा से तैजस और कार्मण के परमाणु अन्य समुद्घात में पुनः संकोच होता है, तब जो शरीरबन्ध होता है वह प्रथम प्रकार का शरीरबंध है। (४०) समुद्घातान्निवृत्तस्य परः केवलिनोष्टसु । स्यात् पंचमे क्षणे तेजः कार्मणाणु समाहृतौ ॥४१॥ और केवली समुद्घात से निवृत्त हुए श्री जिनेश्वर भगवन्त को आठवें से पांचवें क्षण में तैजस और कार्मण के परमाणुओं का हरण करते जो शरीरबन्ध होता है । वह दूसरे प्रकार का शरीर बन्ध है । (४१) आत्मप्रदेश विस्तारे तेजः कार्मणयोरपि । विस्तारः संहृतौ तेषां संघातः स्यात्तयोरपि ॥४२॥ - आत्म प्रदेशों का विस्तार होने पर तैजस और कार्मण शरीर का भी विस्तार होता है और आत्म प्रदेशों का संहार-नाश होते इन दोनों शरीर का भी संघात होता है । (४२) - देह प्रयोगबन्धस्तु बहुधौदारिकादिकः । स पंचमांगो शतकेऽष्टमे ज्ञेयः सविस्तरः ॥४३॥ . . इति बन्ध परिणामः ॥१॥ और शरीर प्रयोगबंध तो अधिकतः औदारिक आदि का ही होता है । यह बात विस्तार पूर्वक पांचवें अंग भगवती सूत्र के आठवें शतक में वर्णन की गई है, वहां से जान लेनी चाहिए । (४३) इस तरह बंध परिणाम का स्वरूप जानना । (१) गतेः परिणतिद्वैधा संस्पृशन्त्यस्पृशन्त्यपि । द्वयोरयं विशेषस्तु वर्णितस्तत्व पारगैः ॥४४॥

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