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वह इस तरह से है- जब ये किरण आतप धूप युक्त भी अभास्वर वस्तुओं • में प्रवेश करती हैं तब ये अपने सम्बन्ध वाली वस्तुओं के आकार वाली होतें श्याम स्वरूपी होती हैं। क्योंकि आतप, ज्योत्स्ना दीपक का प्रकाश आदि के योग से स्थूल पदार्थ की आकृति रूप छाया पृथ्वी पर श्याम पड़ती है - दिखती है । परन्तु जब तलवार तथा दर्पण आदि भास्वर- प्रकाशमय पदार्थ का सम्बन्ध होता है तब वह किरण अपने सम्बन्ध वाले द्रव्य के वर्ण तथा आकृति को धारण करती है, क्योंकि दर्पण आदि में मूल वस्तु के अनुसार वर्ण और आकृति वाली प्रतिच्छाया प्रत्यक्ष दिखाई देती है । (१४६ से १५२)
एषां स्वरूप वैचित्र्यं न चैतन्नोपपद्यते । सामग्री सहकारेण नानावस्था हि पुदगलाः ॥१५३॥..... यथा दीपादि सामग्रयातामसा अपि पुद्गलाः । .... प्रकाशरूपाः स्युर्दीपापगमे तादृशाः पुनः ॥१५॥
उनके स्वरूप की यह विचित्रता अल्प भी अयुक्त नहीं है क्योंकि सामग्री के सहकार से पुद्गल विविध अवस्था प्राप्त करते हैं । जैसे दीपक की हाजरी में अंधकार के पुद्गल भी प्रकाशमय हो जाते हैं और दीपक जाने के बाद वापिस जैसे होते हैं वैसे ही हो जाते हैं । (१५३ से १५४)
. "आतपो तयोः पौदगलिकत्वं तु निर्विवादम् ।" 'आतप और उद्योत ये दो तो निःशंक रूप में पुद्गल ही हैं।' पुद्गलत्वं तु तमसां शीत स्पर्शतया स्फुटम् । नीलं चलत्यन्धकारमित्यादि प्रत्ययादपि ॥१५५॥
तथा अंधकार एक पौद्गलिक वस्तु है - यह तो इसके शीत स्पर्श से ही जानकारी होती है अथवा श्याम अंधकार चलता है इत्यादि प्रत्यय को लेकर भी यह बात निश्चय होती है । (१५५)
याश्चा प्रतीघातिताद्याः परोक्ताः प्रति युक्तयः । तास्तु दीप प्रकाशादि प्रतिबन्धिं परा हताः ॥१५६॥
यहां अन्य दर्शनकारों ने अप्रतिघातत्व आदि जो प्रतियुक्तियां कही हैं इनका तो दीपक के प्रकाश आदि के सामने, दलील-बहस से खंडन ही हो जाता है । (१५६)