Book Title: Lokprakash Part 01
Author(s): Padmachandrasuri
Publisher: Nirgranth Sahitya Prakashan Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 630
________________ (५६३) सर्वस्थूल पदार्थानां ते छाया पुद्गलाः पुनः । साक्षादेव प्रतीयन्ते छायादर्शनतः स्फुटाः ॥१४६॥ दर्पण आदि के अन्दर मुख आदि का जो प्रतिबिम्ब दिखाई देता है वह भी क्योंकि भ्रम तो ज्ञानान्तर बाह्य छाया रूपी पुद्गल का परिणाम ही है, भ्रम नहीं है होता है और यह इस तरह दिखता नहीं है और सभी अच्छी आखों वालों को एक साथ में भ्रम नहीं होता है और विशेष सर्व स्थूल पदार्थों की छाया हम लोग देख सकते हैं, वह इसलिए वह छाया पुद्गल ही है (१४४ से १४६) - इस तरह प्रतीति होती है । सर्वं ह्यैन्द्रियकं वस्तु चयापचय धर्मकम् । रश्मिवच्च रश्मयस्तु छायापुद्गल संहतिः ॥ १४७॥ तथा सर्व इन्द्रिय गोचर पदार्थों का किरणों के समान बढ़ने घटने का स्वभाव ही है, और किरण छाया पुद्गलों की श्रेणि है । (१४७) तथोक्तं प्रज्ञापनां वृत्तौ - "सर्वमैन्द्रियकं वस्तु स्थूलं चयापचय धर्मकं रश्मिवच्चेति ॥ " श्री पन्नावणा की वृत्ति में भी कहा है कि - सर्व इन्द्रिय गोचर बादर पदार्थ किरण (रश्मि) के समान वृद्धि-हानि का अनुभव ही होता है । अवाप्य तादृक् सामग्री ते छाया पुद्गलाः पुनः । विचित्र परिणामाः स्युः स्वभावेन तथोच्यते ॥ १४८ ॥ - यह छाया पुद्गल और इस प्रकार की सामग्री प्राप्त करके स्वाभाविक रूप में ही विचित्र परिणाम प्राप्त करता है । (१४८) यदातपादि युक्ते ते गता वस्तुन्यभास्वरे । 'तदा स्व सम्बन्धिवस्त्वाकाराः स्युः श्याम रूपकाः ॥१४६॥ दृश्यते ह्यातप ज्योत्स्नादीपालोकादि योगतः । स्थूल द्रव्याकृतिश्छाया भूम्यादौ श्याम रूपिका ॥ १५० ॥ यदा तु खड्गादर्शादिभास्वर द्रव्य संगताः । तदा स्युस्ते स्वसंबंधिद्रव्य वर्णाकृति स्पृशः ॥१५१॥ आदर्शादौ प्रतिच्छाया यत्प्रत्यक्षेण दृश्यते । मूल वस्तु सद्दग् वर्णाकारादिभिः समन्विता ॥१५२॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 628 629 630 631 632 633 634