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अबाधाकाल उत्कृष्टस्त्रयोऽब्दानां सहस्रकाः । आद्यकर्म त्रये सुष्टु निर्दिष्टो दृष्टविष्टपैः ॥२७॥ सप्त वर्ष सहस्राणि मोहनीयस्य कर्मणः । पूर्व कोटयास्तृतीयोंशः स भवत्यायुषो गुरुः ॥२७६॥ गोत्र नाम्नोः कर्मणोस्तु द्वे द्वे सोऽब्द सहस्रके। ‘त्रीण्येवाब्द सहस्राणि सोऽन्तरायस्य कर्मणः ॥२७७॥ विशेषाकं ।
पहले तीन कर्मों का अबाधाकाल उत्कर्षतः तीन हजार वर्ष का कहा है, मोहनीय कर्म का सात हजार वर्ष का है, आयुष्य कर्म का एक तृतीयांश पूर्व कोटि वर्ष का है, गोत्र और नामकर्म का दो-दो हजार वर्ष का है और अन्तराय कर्म का तीन हजार वर्ष का कहा है । (२७५ से २७७)
जघन्यतस्त्वबाधाद्धा सर्वेषामपि कर्मणाम् ।
अन्तर्मुहूर्त प्रमिता कथिता तत्व वेदिभिः ॥२७८॥
सारे आठ कर्मों का जघन्य अबाधाकाल एक अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । इस तरह तत्ववेत्ता महापुरुषों ने कहा है । (२७८)
अबाधाकालहीनायां यथास्वं कर्मणां स्थितौ । ... भवेत्कर्मनिषेकस्तत् परिभोगाय देहिनाम् ॥२७६॥
प्रत्येक कर्म की अबाधाकाल रहित स्थिति में उस कर्म की निषेक ..(निर्जरा-भोगने रूप) होती है, वह प्राणियों को कर्म के परिभोग अर्थ में है।
(२७६) - कर्मणां दलिकं यत्र प्रथमे समये बहु ।
द्वितीय समये हीनं ततो हीनतरं क्रमात् ॥२८०॥ ' एवं या कर्म दलिक रचना क्रियतेऽङ्गिभिः ।
वेदनार्थमसौ कर्म निषेक इति कीर्त्यते ॥२८१॥ (युग्मं ।)
निषेक का क्या मतलब है ? कर्म का दल यदि पहले समय में अधिक हो, वह दूसरे समय में इससे कम होता है और इस तरह अनुक्रम से कम होता जाता है। इस तरह कर्म के दल की रचना प्राणी वेदना के लिए करते हैं, वह निषेक कहलाता है । (२८०-२८१)
कर्माण्यमूनि प्रत्येकं प्राणिनामखिलान्यपि । भवेंऽनादौ तिष्टतां स्युरनादीनि प्रवाहतः ॥२८२॥