Book Title: Lokprakash Part 01
Author(s): Padmachandrasuri
Publisher: Nirgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 602
________________ (५६५) इस शंका का समाधान करते हैं- अर्हत् भगवन्त का सर्वघाति कर्म तो क्षय होने से होता है, अतः जब यह अन्तराय कर्म भी क्षीण हुआ हो तब तुरन्त उनमें ऐसा गुण उत्पन्न होता है कि दान देते, लाभ प्राप्त करते, भोगोपभोग करते और वीर्य-उत्साह बढ़ाते उनको कहीं पर भी अन्तराय नहीं होता और इनको दान लाभ आदि हमेशा नहीं होता क्योंकि वह तो उस प्रकार की सामग्री का सद्भाव हो तभी होता है । उसके बिना नहीं होता । (२८८-२६०) · नृदेवगत्यानुपूव्यौं जाति: पंचेन्द्रियस्य च । उच्चैर्गोत्रं सातवेद्यं देहाः पंच पुरोदिताः ॥२६॥ अंगोपांग त्रयं संहननं संस्थानमादिमम् । वर्णगन्धरस स्पर्शाः श्रेष्ठा अगुरुलध्वपि ॥२६२॥ पराघातमथोच्छ्वासमातपोद्योत नामनी । नृदेवतिर्यगायूंषि निर्माणं सन्न भोगति ॥२६३॥ तथैव त्रस दशकं तीर्थंकृन्नाम कर्म च । द्वि चत्वारिंश दित्येवं पुण्य प्रकृतयो मताः ॥२६४॥ कलापकम् । जीव की बयालीस पुण्य प्रकृतियां हैं । वह इस तरह -मनुष्य गति, देवगति, मनुष्यानुपूर्वी, देवानुपूर्वी, पंचेन्द्रियत्व, उच्च गोत्र, साता वेदनीय, पूर्वोक्त पांच देह, तीन अंगोपांग, प्रथम संघयण, प्रथम संस्थान, श्रेष्ठ वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, अगुरु लघु शरीर, परावातत्व, श्रेष्ठ उच्छ्वास, आतप नामकर्म, उद्योत नामकर्म, मनुष्य, देव और तिर्यंच का आयुष्य, निर्माण, सविहायो गति, स, बादर, पर्याप्त प्रत्येक स्थिर, शुभ, सुभग सुस्वर, आदेय और यश नामकर्म तथा तीर्थंकर नामकर्म। (२६१-२६४) भेदाः पंच नव ज्ञानदर्शनावरणीययोः । नीचैर्गोत्रं च मिथ्यात्वमसातवेदनीयकम् ॥२६॥ नरकस्यानुपूर्वी च गतिरायुरिति त्रयम् । तिर्यग्गत्यानुपूयौं च कषायाः पंचविशंति ॥२६६॥ एक द्वि त्रि चतुरक्षजातयोऽसन्न भोगतिः । अप्रशस्तताश्च वर्णाद्यास्तथोपघात नाम च ॥२६७॥ अनाद्यापि पंच संस्थानानि संहननानि च । तथा स्थावरदशकमन्तरायाणि पंच च ॥२६॥

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